हिमाचल कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी की त्रैमासिक शोध पत्रिका सोमसी के वर्ष 5 अंक 3 (जुलाई 1979) में छपा प्रो० दया सागर जी का एक लेख।


बजौरा के सांस्कृतिक अवशेष

― प्रो० दया सागर

सांस्कृतिक अवशेषों का समन्वित एवं सौष्ठव पूर्ण संग्रह केवल उन्हीं स्थलों पर उपलब्ध होता है जहां सांस्कृतिक जन-समुदायों ने जमकर निर्माण कार्य किया हो एवं भौगोलिक दृष्टि से सांस्कृतिक निर्माण कार्य के लिए स्थल-विशेष को उपयुक्त पाया हो। कुल्लू की देवघाटी में बजौरा या हाट (हाट बाजार) अनेकानेक संस्कृतियों का प्रवेश द्वार रहा है। जब त्रिगर्त की ओर से कुल्लू घाटी में उतरने वाली संस्कृतियों ने व्यासा के उद्गम को पाने का उपक्रम किया, हाट बजौरा इन संस्कृतियों का स्वाभाविक अध्यागत बना। यहीं उन्हें व्यासा का प्रथम हिमानी रूप देखने को मिला और यहीं विराट हिमालय का प्रथम दर्शन हुआ। त्रिगर्त के पर्यटक को हिम घाटी का पहला हाट-बाजार यहीं देखने को मिला, और मिला यहां की समतल हरित-तृण-संकुलित भूमि का विस्तार और हिमानी बयार का सुखद स्पर्श भी। ईस्वी सन्‌ १८६० के पहले यह एक वास्तविकता थी, आज मात्र इतिहास है। सन्‌ १८६० में भुभू-झटींगरी वैकल्पिक मार्ग अंग्रेजों द्वारा द्वार विकसित हुआ और सन्‌ १९३० में मण्डी-कुल्लू परिवहन मार्ग बना। दूसरे मार्ग के चल निकलने से तो जैसे बजौरा को लोग भूल ही गये तथा इस महनीय सांस्कृतिक स्थली की गरिमा भूला बिसरा इतिहास मात्र बनकर रह गया। लेकिन हाथ कंगन को आरसी की अपेक्षा नहीं। बजौरा की महनीय सांस्कृतिक सम्पदा पुकार-पुकार कर कहती है कि यहां लगभग तीन किलोमीटर परिधि का एक सांस्कृतिक स्थल है जो अंतर्राष्ट्रीय महत्व का है। किसी समय कम्पूचिया का अंगको रवात झाड़-झंखाड़ से परिव्याप्त था, लेकिन बजौरा का अंगको रवातीय परिवेश अदृश्य है क्योंकि वह भूमिगत है। वैष्णव, शाक्त, शैव, वाम-मार्गी बौद्ध-सिद्ध, बौद्ध तथा पूर्व युगीन संस्कृतियों ने हाट बजौरा के सांस्कृतिक स्थल पर जमकर निर्माण किया है। सांस्कृतिक-अवशेषों के माध्यम से आज से एक हजार वर्ष पूर्व तक की संस्कृति यहां स्वत: प्रमाणित है। इससे पूर्व की संस्कृतियों के प्रमाण स्तरीय उत्खनन की अपेक्षा रखते हैं।

पिछले पन्द्रह-अठारह वर्षों में बजौरा के विश्वेश्वर-महादेव प्रांगण से आठ अत्यन्त समृद्ध वास्तुशिल्प शिमला संग्रहालय में विस्थापित हुए हैं। विस्थापित शिल्पों का विवरण इस प्रकार है:―

  • १. अरुण अथवा विष्णु चक्र-पुरुष … ७६ cm × ७६ cm
  • २. प्रजापति … १३७ cm × ७२ cm
  • ३. भैरव … ६३ cm × ३३ cm
  • ४. शिव … २५ cm × ३६ cm
  • ५. पार्वती … ५६ cm × १८ cm
  • ६. कृष्ण-कालिया-दमन-रूप … ५३ cm × २६ cm
  • ७. एक अपरिचित शस्त्र-बद्ध मूर्ति … ४६ cm × ७३ cm
  • ८. किसी देवता की मूर्ति का शीर्ष भाग … १३६ cm × ३० cm

इन वास्तु शिल्पों का विस्थापन हुआ है―स्थानान्तरण नहीं। इसे मात्र विडम्बना ही कह सकते हैं कि बजौरा को परित्यक्त स्थल मान लिया गया अथवा इस स्थल की अपेक्षा शिमला संग्रहालय को अधिक सुरक्षित एवं पर्यटन स्थल मान लिया गया और कला-सम्पदा को उसके जन्मसिद्ध प्रकृत सांस्कृतिक स्थल से उठा कर हिमाचल की राजधानी में सम्मानित किया गया। यह कुछ ऐसे समय में घटित हुआ जब कुल्लू घाटी संसार के पर्यटन मानचित्र पर अंकित होने जा रही है और लाहुल व तिब्बत जैसे क्षेत्रों में पर्यटन सम्भावनाएं बढ़ रही हैं। बजौरा से कुल्लू मुख्यालय चौदह किलोमीटर पर स्थित है और हिमाचल का एक मात्र हवाई अड्डा भून्तर छः किलोमीटर पर कुल्लू को ओर स्थित है। ऐसे में यदि सांस्कृतिक घाटी के कला-शिल्प अपने परिवेश को छोड़ कर अन्यत्र भेज दिए जाते हैं तो इसे विस्थापन कहना चाहिए। बजौरा एक दम राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। मुख्य सड़क से सट कर ही वह अत्यन्त समृद्ध ऐतिहासिक सांस्कृतिक स्थली है जहां कई सौ वर्षों तक विभिन्न संस्कृतियों ने जमकर निर्माण किया है और जिसका सही मूल्यांकन सांस्कृतिक परिमिति में ही एक खुला संग्रहालय स्थापित करके हो सकता था। कुल्लू-घाटी की समृद्ध संस्कृति को देखने के लिए किसी पर्यटक को शिमला जाना पड़े तो यह कुछ वैसी ही अटपटी बात लगेगी जैसे अजन्ता या ताबो की संस्कृतियों को दिल्‍ली और शिमला विस्थापित करके पर्यटक को यह कुछ देखने के लिए इन संग्राहलयों में जाने के लिए कहा जाए।

Images: AIIS

विश्वेश्वर महादेव मन्दिर स्वयं पुरातत्व-विभाग के अधीन है फिर भी उसकी सुरक्षा के आगे प्रश्न-चिह्न लगा है। इसी मन्दिर के प्रांगण में दो क्रेटों में बन्द एक अत्यन्त महनीय कला शिल्प देखा जा सकता है जो एक विष्णु मूर्ति बताई जाती है। सुनते हैं इसका विस्थापन कुछ समय के लिए अमेरिका के लिए और फिर दिल्ली के केन्द्रीय संग्रहालय के लिए निश्चित था। स्स्थानीय पंचायत द्वारा अपने पक्ष में स्थगन आदेश प्राप्त करने के अनन्तर ऐसा होने से बच गया―यह एक सुखद निर्णय है। पर्यटन के सांस्कृतिक पक्ष को भूल जाना एक ऐतिहासिक भूल को अर्जित करने के समान है। इसी भूल के कारण बजौरा की उक्त ऐतिहासिक सांस्कृतिक स्थली पर फलोद्यान की योजना कार्यान्वित हुई है। बुलडोजर के दानवी हाथों ने भूमि में दबे कितने ही मूर्ति शिल्पों को बेरहमी से बाहर निकाल फैंका। आज भी उनमें से कुछ भारी-भरकम कला-शिल्प कहीं खेतों की मीड़ों पर और कहीं किसी चबूतरे पर रखे देखे जा सकते हैं। छोटे कला शिल्प जो मात्रा में अनेक बताए जाते हैं अब नहीं रहे। बजौरा के परिवेश में एक अनुगूंज है। वह यह कि बहुत कुछ कला-सम्पदा चोरी छिपे बाहर जा चुकी है।

बजौरा के सांस्कृतिक अवशेषों में लगभग एक दर्जन अवशेष मुख्य स्थल से कुछ अन्तर पर स्थित कर्नल रैनिक की जागीर के पास देखे जा सकते हैं। शैव दर्शन से सम्बद्ध तथा कुछ अन्य अत्यन्त महत्वपूर्ण अवशेष वहां मोजूद हैं। कर्नल रैनिक ने जो भवन निर्माण किया था वह सन्‌ १९०५ के कांगड़ा भूकम्प के बाद किया गया। उस समय बजौरा में भी मंदिर संस्कृति ध्वस्त हुई। इस महत्वाकांक्षी अंग्रेज ने ध्वस्त मन्दिर पाषाण राशि व कला-शिल्प को लूट के माल की भांति समेटा और अपने भवन खड़े किए। एक सूखे कुएं पर मन्दिर के जगनोहन के ऊपर के कलश को औंधा रखा देखा जा सकता है। कोठी के बाहर सजावट के रूप में भी कुछ कला-शिल्प हैं तथा यत्र-तत्र भी।

बजौरा का विश्वेश्वर महादेव मन्दिर उत्तर-भारत मन्दिर निर्माण कला के अनुरूप सन्‌ ११४० व ११७० के बीच का निर्माण होना चाहिए। पास का हाटेश्वरी मन्दिर शाक्त कला पर आधारित था किन्तु उसका पुनर्निर्माण हो चुका है। सबसे पुराना कला-शिल्प नवीं-दशमी शताब्दी का वाममार्गी शिल्प था। “गण चौहलू” ओर “यमशैल” जैसे तांत्रिक शिल्प ऐसे ही थे। पहला सन्‌ १६३० के आसपास भय के कारण लोगों द्वारा व्यासा में ढकेल दिया गया था और दूसरा सम्भवत: विशेष स्थल पर गृह निर्माण (अब स्थगित है) के समय। बजौरा के सांस्कृतिक स्थल पर ही कुछ पत्थरों की ढेरियां हैं जो कभी रावलों के घर थे। ये रावल लोग गण चौहलू के माध्यम से मारण, मोहन, उच्चाटन के अभिचार करने की विधि जानते थे। कालान्तर से परस्पर विरोधी अभिचारों द्वारा इन रावलों का समूल नाश हुआ बताया जाता है। यमशैल सम्भवतः कोल-कापालिकों का तांत्रिक शिल्प रहा होगा। इसी के नाम से यहां यमशैलपुरी प्रसिद्ध थी। यह पुरी जंगल के मध्य स्थित थी और लोग दिन में भी उस ओर जाने से डरते थे। न जाने कौन से बीभत्स अभिचार इस तांत्रिक पुरी में सम्पन्न होते होंगे लेकिन निःसन्देह ये मन्दिरों की अपेक्षा प्राचीन हैं। हाट बजौरा को आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह सूर्य और एक प्रजापति दक्ष का स्थान माना जाता है लेकित बौद्ध सिद्धों की परम्परा इनसे प्राचीन है। शंकराचार्य की पंच देवोपासना का साक्षात प्रमाण (मॉडल सहित) ही विश्वेश्वर महादेव मन्दिर है जिसे बौद्धों का प्रभाव निरस्त करने के लिए ही निर्मित किया गया है। इस तथ्य में दो मत नहीं हो सकते। ग्यारह रुद्रों में विश्वेश्वर महादेव एक हैं। एक रुद्र बजौरा खड्ड के किनारे दबा पड़ा है और नौ रुद्र हाटेश्वरी मन्दिर के प्रांगण में उठाकर रख दिये गए हैं। कभी सभी रुद्रों के अपने-अपने मन्दिर रहे होंगे। शंकराचार्य के पूर्व शिव, गणपति, शक्ति, सूर्य तथा विष्णु के अलग-अलग सम्प्रदाय थे तथा उनके मतानुयायी अपने-अपने इष्ट को ही ब्रह्म मानते थे। शंकराचार्य अद्वैतवादी थे किन्तु लोक-मर्यादा के अनुरूप उन्होंने सभी देवों का समन्वय किया। समन्वय हिन्दू संस्कृति के मेल में है। समन्वय के अनुरूप घरों में भी उपर्युक्त पांचों देवों को हिन्दू सनातनी एक पीढ़ी में रख कर पूजता रहा है। लेकिन मन्दिर के रूप में पंचदेवों का यह समन्वय केवल बजौरा में उपलब्ध है। गर्भगृह में टांकर के इष्ट रुद्र स्थित हैं; बाहर की भित्तियों पर गणपति, विष्णु और महिषासुरमर्दिनी के विशाल उत्कीर्ण शोभित हैं तथा मन्दिर के जगमोहन पर भगवान सूर्य शोभित हैं। यही पंचदेव हैं। मूल हाटेश्वरी मन्दिर अधिक प्राचीन हो सकता है। आठ वसु, दस अन्य रुद्र, बारह सूर्य और एक प्रजापति दक्ष आज कहां हैं? उनसे पूर्व के बौद्ध सिद्धों के अवशेष और उससे भी पूर्व ह्यूनसांग द्वारा देखी गई सातवीं शताब्दी की बौद्धकला कहां है? अगस्त सन ६३५ में ह्यूनसांग ने जिस कियोलोटो (कुलूत) को देखा था, हो सकता है वह बजौरा ही हो। उसने भी पन्द्रह ली (तीन-मील) के घेरे मे कियोलोटो के नगर को देखा था। क्या वह त्रिगर्त से सीधे हाट में नहीं उतरा था? केवल स्तरीय उत्खनन ही एकमात्र उत्तर प्रस्तुत कर सकता है। इस महनीय सांस्कृतिक स्थला का एक भूभाग ही जब विशाल भूमिगत सम्पदा का अनावरण कर सकता है तो क्या आश्चर्य है कि समस्त सांस्कृतिक स्थल कई खोई कड़ियों का उद्घाटन करने में सक्षम हो सकता है। 

अभी कुछ समय पूर्व हाटेश्वरी मन्दिर के सामने एक झाड़ी के नीचे कौतूहलवश उत्खनन प्रक्रिया द्वारा एक पत्थर की ध्वजा को पृथ्वीतल के नीचे दबा पाया गया लेकिन लोगों ने इस श्रम को बीच में रोक दिया।

अवश्य ही बजौरा-हाट का यह सांस्कृतिक ऐतिहासिक स्थल एक खुले संग्रहालय के रूप में विकसित होने योग्य है। युगधर्म के अनुरूप ही सांस्कृतिक अवशेषों की सुरक्षा के प्रश्न का समाधान होना चाहिए। पर्यटन युग में पर्यटन प्रिय खुले सांस्कृतिक पर्यावरण सम्बन्धी संग्रहालयों की स्थापना आज के युग की मांग है। तभी सेब और दैव की धरती पर महनीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अभ्युदय हो सकता है।

राजकीय महाविद्यालय,

कुल्लू (हि०प्र०)


0 Comments

Leave a Reply

Sorry, you cannot copy the contents of this page.

Discover more from Tharah Kardu

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading