प्रस्तुत लेख में विभिन्न प्रकाशित सामग्री से एकत्रित जानकारी के आधार पर कुल्लू की एक छोटी सी रियासत की स्थापना तथा विघटन का वर्णन है, जिसका एक बड़ा भू-भाग आज लौगा और लग-वैली के नाम से जाना जाता है।


1. पृष्ठभूमि

सुकेत राज्य, ईस्वी सन् 1240 के आसपास

सुकेत के राजा मंतर सेन की बिना पुत्र मृत्यु हो जाने के कारण शाही अधिकारियों द्वारा राजा के एक निकट संबंधी मियां मदन को उत्तराधिकारी चुना गया। मियां मदन अदम्य साहस वाला था और उसने मदन सेन नाम से एक लंबे समय तक सुकेत राज्य पर शासन किया। उसके शासनकाल में सुकेत राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ और सुकेत अपनी समृद्धि के चरम पर पहुंचा।

जब मदन सेन राजगद्दी पर आसीन हुआ उस समय ब्यास नदी सुकेत राज्य की उत्तरी सीमा थी और पड़ोसी राज्य बंगाहल/मंगाहल से इसे पृथक करती थी। मदन सेन ने उत्तर में ब्यास पार बंगाहल राज्य पर आक्रमण कर द्रंग तथा गुम्मा क्षेत्र के राणा-ठाकुरों को अपने अधीन किया। तत्पश्चात मदन सेन ने कुल्लू राज्य पर आक्रमण किया और ब्यास नदी के दाहिने किनारे को सिउंसा नाला तक और वज़ीरी रूपी की सम्पूर्ण पार्वती घाटी को जीतने में वह सफल रहा। उस समय कुल्लू का शासक केरल पाल था।

मदन सेन ने भोशल नाम के एक स्थानीय राणा को ब्यास नदी के दाहिने किनारे सिउंसा और बजौरा के बीच के क्षेत्र का अधिप नियुक्त किया। सुकेत के प्रति भोशल राणा की निष्ठा को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए मदन सेन ने उसका विवाह अपने एक निकट संबंधी रूप चंद की बहन से करवाया। मदन सेन ने कुल्लू की खोखण कोठी में ‛मदनपुर’ नाम से एक किला भी बनवाया था जिसके भग्नावशेष बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों तक वहां विद्यमान थे।

अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में मदन सेन ने सुकेत की राजधानी को पांगणा से लोहारा (बल्ह) स्थानांतरित किया।

Madanpur on a map from 1870s. (Calvert, 1873)

सुकेत, ईस्वी सन् 1500-1520

सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में परबत सेन सुकेत राज्य का शासक बना। उस समय वज़ीरी रूपी, सराज (कुल्लू-सराज, मंडी-सराज, बाह्य-सराज का उत्तर-पश्चिमी तथा दक्षिण-पश्चिमी भाग), बजौरा से सिउंसा तक ब्यास नदी का दायां किनारा और छोटा बंगाहल का कुछ भाग ये सभी सुकेत राज्य के अधीन थे। यहां के राणा-ठाकुर सुकेत के प्रति अपनी निष्ठा रखते थे। 

शेष सराज क्षेत्र अर्थात् बाह्य-सराज का पूर्वी भाग बशाहर राज्य के नियंत्रण में था।

इसी काल खंड में ब्यास नदी के दाएं किनारे पर सिउंसा और बाएं किनारे पर जगतसुख से ऊपर के भू-भाग पर झीणा नाम के एक राणा का अधिपत्य था। कुल्लू के तत्कालीन राजा सिद्ध सिंह (1500-32) ने झीणा राणा का कपटवध करवा कर यह क्षेत्र अपने अधीन किया और ब्यास के दाहिने किनारे फोज़ल नाला तक का क्षेत्र भी सुकेत से वापस जीत लिया।

लग जागीर की स्थापना

परबत सेन के शासनकाल में एक राज-पुरोहित पर शाही स्त्रीगृह की बांदी (दासी) से संबंध रखने का आरोप लगाया गया। जब राजा को इस बात का पता चला तो उसने राज-पुरोहित को दंडित करने का आदेश दे दिया। परंतु राज-पुरोहित निर्दोष था और इस झूठे आरोप से लज्जित होकर उसने ने आत्महत्या कर ली।

इस घटना के बाद परबत सेन गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। अपनी व्याधि को ब्रह्महत्या का दोष समझ कर राजा ने प्रायश्चित के लिए राज-पुरोहित के परिवार को फोज़ल नाला से बजौरा तक का क्षेत्र जागीर स्वरूप दे दिया। परन्तु राजा स्वस्थ न हो पाया और शीघ्र ही चल बसा।

चूंकि यह जागीर प्रायश्चित स्वरूप दी गयी थी, इसे लग/लाग (शब्दार्थ: दोष, पाप; दाह-संस्कार शुल्क) कहा गया। इस जागीर में वह सम्पूर्ण क्षेत्र समिल्लित था जिसे कालांतर में वज़ीरी लग-सारी (फोज़ल नाला और सरवरी नदी के बीच ब्यास का दाहिना किनारा) और वज़ीरी लग-महाराजा (सरवरी नदी से बजौरा तक ब्यास का दाहिना किनारा) कहा गया।

2. बहादुर सिंह तथा सराज और कुल्लू में सुकेत का क्षीण होता प्रभाव

रूपी का विलय

सिद्ध सिंह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र बहादुर सिंह (1532-59) कुल्लू का राजा बना। रूपी क्षेत्र के ठाकुर सुकेत के अभिमानी राजा अर्जुन सेन (1540-60) के शासन से असंतुष्ट थे। अर्जुन सेन द्वारा अपनी राजसभा में अपमानित किये जाने से क्षुब्ध कुछ ठाकुरों ने बहादुर सिंह के प्रति अपनी निष्ठा का प्रस्ताव भेजा। इस प्रस्ताव को बहादुर सिंह ने मान लिया और इन ठाकुरों की सहायता से हारकंढी, चुंग/चौंग और कनाउर कोठियों के ठाकुरों को अपने अधीन किया और रूपी वज़ीरी की सम्पूर्ण पार्वती घाटी पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। बहादुर सिंह ने लधियाड़ा के ठाकुर हाथी को अपना सेनापति नियुक्त किया जिसके नेतृत्व में बहादुर सिंह की सेना रूपी वज़ीरी के शेष भाग (कोट-कंढी, भलाण और शैंशर) पर विजय पाने में सफल रही।

मकड़ाह और कुल्लू

रूपी वज़ीरी पर प्रभुत्व स्थापित करने के बाद बहादुर सिंह ने कोठी कोट-कंढी में प्राचीन नगर मकड़ाह (मकड़सा) को पुनः बसाया और वहां एक दुर्ग भी बनवाया। ऐसा माना जाता है कि यह स्थल ब्यास नदी के बाएं किनारे ब्यास और हुरला नाला के संगम पर स्थित था।

यद्यपि कुल्लू की राजधानी नग्गर थी, बहादुर सिंह व उसके उत्तराधिकारी जगत सिंह (1637-1672) के समय तक मकड़ाह से ही शासन चलाते रहे। जो निस्संदेह सराज पर विजय पाने के लिए सामरिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान था।

लाहुल में तिनान (गुंधला) ठाकुरों के इतिवृत्त में कुल्लू के राजा बहादुर सिंह (1532-59), प्रताप सिंह (1559-1575) और परबत सिंह (1575-1608) तीनों का स्थान मकरसांग अर्थात मकड़सा लिखा गया है। सत्रहवीं शताब्दी के एक पुर्तगाली जेसुइट धर्म-प्रचारक फ़्रांसिस्को डी एजे़वीडो ने भी अपने यात्रा-वृत्तांत में कुल्लू की राजधानी (संभवतः नग्गर) को ‛मगर सारा’ कहा है। फ़्रांसिस्को ईस्वी सन् 1631 में कुल्लू होकर गुज़रा था जब यहां जगत सिंह के ताया पृथी (पृथ्वी) सिंह का शासन था। इसके अतिरिक्त चम्बा के भूरी सिंह संग्रहालय में कुछ टांकरी दस्तावेज़ रखे हैं जिनमें कुल्लू राज्य का नाम मकडा़सा लिखा गया है। ये सभी दस्तावेज़ राजा प्रीतम सिंह (1767-1808) से संबंधित हैं।

तिनान इतिवृत्त में कुल्लू की राजधानी का सेतानपुर  (सुल्तानपुर) नाम से उल्लेख सर्वप्रथम प्रीतम सिंह के समय में ही मिलता है।

इन सभी लिखित स्रोतों से यह स्पष्ट है कि राजधानी नग्गर, और साथ ही सम्पूर्ण कुल्लू राज्य, बहादुर सिंह से प्रीतम सिंह के समय तक मकड़ाह, मकड़सा अथवा मकडा़सा के नाम से जाना जाता था।

Raja Pritam Singh of Kulu, ca. 1780. Pahari Style, Unknown Artist. Source: Virginia Museum of Fine Arts.

सराज पर विजय और लग पर प्रथम आक्रमण

मकड़ाह को अपना गढ़ बनाने के पश्चात बहादुर सिंह ने सराज की ओर अपना ध्यान लगाया जिसका बहुत बड़ा भाग अब भी सुकेत के अधीन था। बहादुर सिंह ने ठाकुर हाथी के नेतृत्व में आंतरिक-सराज की ओर सैन्य अभियान भेजे जिसमें शांघड़, बणोगी, नोहांडा, तुंग, बरामगढ़(?) और चैहणी कोठियों के ठाकुरों को पराजित कर हाथी ने आधे आंतरिक-सराज क्षेत्र को कुल्लू राज्य में मिलाया।

बहादुर सिंह द्वारा ढुङ्गरी का हिड़मा देवी मंदिर (1553 ई०) संभवत: कुल्लू, रूपी और आंतरिक-सराज के राणा-ठाकुरों पर उसकी विजय के बाद बनवाया गया था।

Temple of Devi Hirma, ca. 1870. Source: Victoria and Albert Museum.

बहादुर सिंह ने अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में फिर से सराज की ओर रुख किया और मंडी के राजा साहिब सेन (1554-75 या 1534-60) के साथ मिलकर सुकेत राज्य पर चढ़ाई कर दी। इस संयुक्त अभियान में बहादुर सिंह ने शेष आंतरिक-सराज तथा बाह्य-सराज का उत्तर-पश्चिमी भाग अपने अधीन किया और साहिब सेन ने वह भू-भाग लिया जिसे कालान्तर में मंडी-सराज कहा गया।

इसके बाद के एक अन्य संयुक्त सैन्य अभियान में बहादुर सिंह ने लग जागीर के मदनपुर (खोखण कोठी), पीरकोट (बैरकोट?) और आसपास के बारह गांवों पर कब्जा कर लिया। वहीं साहिब सेन ने शनोर और बदार की वज़ीरियों, जो संभवतः सुकेत के सीधे अधिकार में थीं, को अपने राज्य में मिलाया।

सन् 1559 में, कुल्लू और चम्बा के बीच एक वैवाहिक संधि हुई जिसका वर्णन ताम्रपत्र पर लिखित एक अभिलेख में मिलता है। देवशेष लिपि (टांकरी का एक पूर्ववर्ती रूप) में लिखे इस अभिलेख के अनुसार बहादुर सिंह ने चम्बा राज्य के उत्तराधिकारी के साथ अपनी तीन पुत्रियों के विवाह के अवसर पर हाट (बजौरा के पास) में भूमि का अनुदान दिया था। अनुदानग्राही चम्बा का राजगुरु था जिसकी इस विवाह संधि में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। राजगुरु को गुरुदक्षिणा स्वरूप हाट तथा शायरी में कुछ भूमि और सीमांत गढ़ (संभवतः बजौरा गढ़) में एक दुकान भेंट की गई थी। इससे विदित होता है कि उस समय यह सभी स्थल बहादुर सिंह के अधीन कुल्लू राज्य के अधिकार क्षेत्र में थे।

बहादुर सिंह के शासनान्त तक इस क्षेत्र से सुकेत  राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। संभव है इसके बाद ही लग जागीर के शासकों ने अपने आप को एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया होगा।

A facsimile of Bahadur Singh’s copper-plate grant (AD 1559). Source: ASI Annual Report, 1903-04.

3. लग का विलय (लगभग 1756-57 ई०)

जगत सिंह (1637-72)

जगत सिंह अपने पूर्वजों की तरह मकड़ाह में ही रहा। लग अथवा लगवती शासक जगत सिंह के काल तक एक विस्तृत भू-खंड पर पकड़ बनाए रखने में सफल रहे थे। उनके अधिकार क्षेत्र में वज़ीरी लग-महाराजा (संभवतः बजौरा तथा खोखण कोठी छोड़कर), वज़ीरी लग-सारी, कोढ़सोवार (कोठी-सवार) और चुहार घाटी (ऊपरी उहल नदी घाटी) सम्मिलित थी।

लग राज्य पर उस समय दो भाइयों जोग चंद और सुल्तान चंद का राज था। सुल्तान चंद सुल्तानपुर में रहता था और सारी-गढ़ उसका प्रमुख दुर्ग था, जबकि जोग चंद का गढ़ डुघीलग में था और शोजा और गोजा उसके दो प्रमुख दुर्ग थे। कहा जाता है कि सुल्तानपुर की स्थापना सुल्तान चंद ने की थी और उसी से इस स्थान का नाम पड़ा।

सन् 1656-57 ईस्वी के आसपास जोग चंद की मृत्यु हो गई। जब जगत सिंह को इस घटना का समाचार मिला तो उसने मण्डी के राजा सूरज सेन (1623-58/1637-64) के साथ मिलकर लग पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कुल्लू में जगत सिंह ने सर्वप्रथम सुल्तानपुर पर चढ़ाई की। एक भीषण युद्ध के बाद सुल्तान चंद मारा गया और जगत सिंह की सेना ने सारी, मंडलगढ़, रायसन तथा हुरंग कोठी के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात जगत सिंह डुघीलग की ओर बढ़ा और शोजा, गोजा तथा तारापुर किलों को ध्वस्त किया। जोग चंद के पोते तथा अन्य रिश्तेदारों को जगत सिंह ने कारागार में डाल दिया। दूसरी ओर सूरज सेन ने भी सम्पूर्ण चुहार क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।

Looking northwards from the ruins of Tarapur Garh. (2019 Photo)

इस प्रकार लग राज्य का विलय अंततः कुल्लू और मण्डी राज्यों में हुआ। संभवत: यही वह समय था जब जगत सिंह द्वारा लिए गए लग क्षेत्र को लग-सारी और लग-महाराजा वजी़रियों में विभाजित किया गया।

कुल्लूई भाषा में निम्नलिखित दोहा दर्शाता है कि यहां की मौखिक परंपरा में इस आक्रमण को किस प्रकार याद रखा गया है:

सारी मॉत मेढ़दा राज़ेआ, सारी पाली पतारी;
छोजगोज मेरे राज़ेआ, सारी होली लग थम्हारी।
हे राजन! केवल सारी पर चढ़ाई मत करो, इससे तुम्हें पछतावा मिलेगा,
शोजा और गोजा को नष्ट करो, सारा लग तुम्हारा है।

जब जगत सिंह ने सारी किले पर अपना अधिकार कर लिया तो ऊपरी कुल्लू क्षेत्र की एक बुजुर्ग महिला ने उसे डुघीलग में शोजा तथा गोजा दुर्गों की ओर भी सेना भेजने का सुझाव दिया, क्योंकि ये दोनों ही दुर्ग लगवती शासकों के प्रमुख गढ़ माने जाते थे। 

दारा शिकोह की चेतावनी

जोग चंद को मुग़ल संरक्षण प्रदान था। उसके मरणोपरांत मण्डी तथा कुल्लू द्वारा लग राज्य पर आक्रमण और विलय का समाचार जब दारा शिकोह को मिला तो उसने जगत सिंह को एक फरमान भेजा। सन् 1657 के इस फरमान में दारा शिकोह द्वारा जगत सिंह को आदेश दिया गया था कि वह जोग चंद के पोते को मुक्त कर उसे उसका राज्य वापस कर दे और यदि जगत सिंह ऐसा नहीं करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतना पड़ेगा। परंतु जगत सिंह ने इस चेतावनी को अनसुना कर दिया था। संभवतः जगत सिंह की ज्ञात था कि मुग़ल राजकुमार की अपने भाईयों के साथ उत्तराधिकार की लड़ाई चल रही है।

4. परिशिष्ट

सन् 1660 ई० के आसपास जगत सिंह ने सुल्तानपुर में भगवान रघुनाथ का एक मंदिर बनवाया और अपने लिए एक महल का निर्माण किया। उसने राजधानी भी नग्गर से सुल्तानपुर स्थानांतरित कर दी। मकड़ाह को छोड़ दिया गया और यह नगर पुनः खंडहर में बदल गया। कुल्लू में ब्रिटिश राज के प्रारंभिक दिनों में मकड़ाह खंडहर के कई उत्कृष्ट नक्काशीदार पत्थरों का इस्तेमाल एक ब्रिटिश अधिकारी ने दलासणी में ब्यास नदी पर पुल बनाने के लिए किया था जो बाद में एक बाढ़ में बह गया था।

अधिकांश बाह्य-सराज पर अभी भी सुकेत और बशाहर का प्रभुत्व था। जगत सिंह ने अपने शासनान्त से पूर्व बाह्य-सराज पर आक्रमण कर सुकेत से नारायणगढ़, श्रीगढ़ और हिमरी क्षेत्रों को जीता।

भगवान रघुनाथ और कुल्लू दशहरा

कहा जाता है कि एक महापाप के प्रायश्चित के लिए जगत सिंह ने अपना सम्पूर्ण राज्य भगवान रघुनाथ के नाम कर दिया था और एक सेवादार के रूप में उनके नाम से आगे शासन चलाया। ई० सन् 1651 और 1656 के दो ताम्रपत्र अनुदानों से ज्ञात होता है कि जगत सिंह के शासनकाल में श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में विष्णु-पूजा एक राजकीय धर्म बन गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि जगत सिंह ने 1661 ई० के आसपास कुल्लू में दशहरा उत्सव आरम्भ किया था।

ऐसा ही स्थानांतरण इससे पूर्व सन् 1648 ई० के आसपास मंडी में भी हुआ था जहां पुत्रविहीन राजा सूरज सेन ने माधो राय (श्री कृष्ण) को अपना राज्य सौंप दिया था।

Rath of Raghunathji, Kulu Dussehra, early 1910s.
Source: Kangra Gazetteer, 1917.

संदर्भ सूची

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  • भटनागर, सत्यपाल (2007). कुल्लू का इतिहास एवम संस्कृति, द्वितीय संस्करण.
Categories: History

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The Jagir of Laug [Lag Valley] - Tharah Kardu · 14 April 2024 at 13:41

[…] *The article is also available in Hindi here. […]

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