यह लेख मौलू राम ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ‛हिमाचल प्रदेश के लोकनाट्य और लोकानुरंजन’ (1981) तथा विपाशा पत्रिका (अंक 33-34, 1990) में छपे उनके लेख ‛कुल्लू क्षेत्र की लोक नाट्य परम्परा’ को एकीकृत कर तैयार किया गया है।


हिमाचल प्रदेश के अनेक भागों में पौष और माघ महीनों को ‛काला महीना’ कहते हैं। अनुश्रुति है कि इन दिनों देवता स्वर्ग-लोक को जाते हैं। वहां उनका वार्षिक समारोह होता है। इस समारोह मे देवताओं के बीच आगामी वर्ष का सुख-दुःख बांटा जाता है। प्रत्येक देवता इस बैठक से क्या लाया, यह बात वह चैत्र और वैशाख के वर्ष के प्रथम मेले में गूर के मुख द्वारा बर्शोहा (वर्ष-भर का) या भार्था (वार्ता) देते हुए बताता है। चूंकि पौष और माघ काले महीने हैं, इसलिए यह समय भूत-प्रेत, दूत-पिशाच, राक्षसों का माना जाता है। इस कारण इन दिनों समान विशेषताओं वाले अनेक लोकनाट्य और मेले आयोजित किए जाते हैं। इन्हें ‛राखस-खेल’ कहा जाता है, अर्थात्‌ राक्षसों के खेल। इनमें अश्लील गीतों और अश्लील प्रदर्शनों का प्रभुत्व रहता है। कुल्लू और किन्नौर क्षेत्र इसके लिए प्रसिद्ध हैं। इन अवसरों पर राक्षसों का पारम्परिक नाच तो होता ही है, इसके अतिरिक्त ऐसी रस्में भी निभाई जाती हैं जिनसे राक्षस-राज की याद और राक्षसों पर देवताओं की विजय की कहानियां आज तक सुरक्षित तथा प्रचलित हैं।

अधिक अश्लीलता के कारण ही इन्हें प्रायः राखस-खेल (राक्षस-खेल) के नाम से जाना जाता है। इन अश्लील नाट्यों के पीछे एक जबरदस्त भावना काम करती है। लोकविश्वास है कि इस क्षेत्र में मानव-समाज के पनपने से पहले यहां भूत-प्रेत, राक्षस, पिशाच, दूत, दानवों का राज था। उन्हें नष्ट करने और मानव समाज स्थापित करने के लिए यहां के देवताओं को बड़ा संघर्ष करना पड़ा। अन्ततः जब राक्षसों का सर्वनाश हुआ तो उनके क्रूर और कठोर अत्याचारों की याद में इन अश्लील नाट्यों की प्रथा चल पड़ी। कई ऐसे भी दूत-भूत-राक्षस थे जिन्होंने वर्ष में कम-से-कम एक बार यहां आने की आज्ञा प्राप्त कर ली थी। उन्हें भगाने के लिए भी नाट्य करने पड़ते हैं।

अश्लील गायन और अभिनय करने के लिए कई बार मुखौटों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु अनेक बार बिना मखौटे पहने ही इनका प्रदर्शन होता है। पन्द्रह पौष से ये अश्लील लोकनाट्य आरम्भ होते हैं जो अब प्रायः समाप्त हो रहे हैं और अनेक स्थानों पर समाप्त हो ही चुके हैं। इनके ह्रास का मुख्य कारण इनकी अश्लीलता ही रही है। इन लोक-नाट्यों, स्वांगों और अश्लील संवादों को केवल पन्द्रह पौष से माघ के अन्तिम दिन तक और कुछेक क्षेत्रों में फागुन के अन्तिम दिन तक प्रदर्शित किया जाता है। पन्द्रह पौष से पूर्व और प्रथम फागुन, और कुछ क्षेत्रों में फागुन के अन्तिम दिन, के बाद इन खेलों का प्रदर्शन तो दूर रहा इन स्वांगों और नाट्यों का नाम भी कोई नहीं ले सकता। केवल इसलिए नहीं कि वे अश्लील हैं, वरन्‌ इसलिए भी कि लोगों का विश्वास है कि इन दिनों के आगे-पीछे जो कोई इन लोक-नाट्यों और गालियों, संवादों और स्वांगों का अकस्मात्‌ भी नाम लेगा या सुनेगा तो नाम लेने और सुनने वाले दोनों के घर वर्ष-भर भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाचों आदि का वास रहेगा और वर्ष-भर जो वे अनिष्ट कार्य, कष्ट और महामारी का प्रकोप ढाएंगे उनसे देवता भी रक्षा नहीं करेंगे। क्योंकि यह धारणा अब भी प्रचलित है इसलिए स्वांगों और गालियों के नाम लिखना उचित तो नहीं है, परन्तु चूंकि ये नाट्य तेज़ी से समाप्त हो रहे हैं इसलिए स्थानीय लोगों से क्षमा चाहते हुए और साहित्य में इनके नामों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु लिखा जाता है कि इनमें से सर्वप्रसिद्ध दो नाट्य हैं―झ़िहरू और बाण्ढू।

गालियां या अश्लील गाने देना तो निश्चित रूप से उचित और सम्भव है ही नहीं। यहां गालियों, अश्लील गानों और संवादों को छोड़ सामान्य परिचय दिया जाता है।

गिहणा

पौष की पन्द्रहवीं तिथि को ‛पोशे-री-पन्द्रह’ के नाम से मनाया जाता है। उस दिन रात के भोजन के लिए हर घर में निश्चित रूप से हलवा या मीठा भात बनता है। उसे दो बार खाना होता है। एक सामान्य रूप से जिसे ‛बियाली’ (रात्रि-भोजन) कहते हैं, जिसमें भरपेट भोजन लिया जाता है, और फिर दूसरी बार सोने से पहले जिसे ‛दनाली’ अर्थात्‌ दूसरी बियाली कहते हैं। तब हर घर के केवल पुरुष―बच्चे, बूढ़े, जवान―गांव के सांझे स्थान पर एकत्रित होते हैं। प्रत्येक के हाथ में कायल वृक्ष की बारीक-बारीक लकड़ियों की मशालें होती हैं। इन्हें ‛शौली’ या ‛मसौला’ कहते हैं। सांझे स्थान से सभी पुरुष ढोल-नगारा लेकर गांव की परिक्रमा करते हैं। परिक्रमा करते हुए विशेष अश्लील गान होता है या गालियां दी जाती हैं। सबसे पहले गांव के दो बड़े बुजुर्ग संवाद बोलते हैं और इनके बाद उनके साथ आगे-पीछे चलने वाले बाकी लोग उन्हें दोहराते हैं। यह मूल रूप से राक्षसों को गालियां होती हैं, ताकि वे गांव छोड़ कर भाग जाएं, ऐसा लोकविश्वास है। परिक्रमा का यही उद्देश्य है कि हर स्थान पर भूत-प्रेत गालियां सुनें और भाग जाएं। इसे ‛फेरा मारना’ कहते हैं।

गांव की पूरी परिक्रमा होने पर गांव की सीमा पर सभी खड़े हो जाते हैं। ढोल-नगारे बंद हो जाते हैं। तब सामने वाले गांव को गालियां निकाली जाती हैं। प्रायः एक ही समय दो गांव वाले आमने-सामने एक-दूसरे को गालियां दे रहे होते हैं। गालियां भी विशेष नहीं, कुछ चुने हुए अश्लील शब्द होते हैं। गांव के दो बड़े बुजुर्ग दूसरे गांव के प्रत्येक गृहस्वामी का नाम लेते हैं, उसे कोई अश्लील लज्जा-जनक कार्य करते हुए बतलाते हैं और बाकी लोग जोर-जोर से यही शब्द दोहराते हैं और ‛हो-हो’ या ‛फुलड़ा’ (फूला हुआ) कहते हैं। साथ ही ढोल-नगारों पर जोर-जोर से चोट की जाती है। गालियां दूसरे गांव के एक छोर के गृहस्वामी से आरम्भ होती हैं और तब तक जारी रहती हैं जब तक गांव के दूसरे छोर तक के प्रत्येक गृहस्वामी का नाम नहीं लिया जाता। यदि कहीं कोई गृहस्वामी भूल से रह जाए तो दोनों बूढ़ों को ‛कुत-खाज़ी’ (चमड़ी रोग) बीमारी लग जाती है, ऐसा विश्वास किया जाता है। दूसरे गांव के प्रत्येक गृहस्वामी को सामान्य अश्लील संवादों के अतिरिक्त उसकी किसी समस्या अथवा परिस्थिति के समाधान के संवाद भी कहे जाते हैं। उदाहरणार्थ, यदि वह अभी अविवाहित हो तो कहा जाता है कि “फलां के लिए विवाह का प्रबन्ध किया जा रहा है”। यदि विवाहित होने पर बच्चे न हो रहे हों तो कहा जाता है कि “बच्चे जनने का प्रबन्ध किया जा रहा है”। यदि पति-पत्नी के सम्बन्ध ठीक नहीं तो दोनों के बीच सुलह-सफाई कराई जा रही बताई जाती है। किसी के अधिक बच्चे हों तो बच्चों के लिए भोजन-वस्त्रों का प्रबन्ध किया जा रहा बताया जाता है। इस एकतरफा संवाद को ‛गिहणा’ (संस्कृत गण् से गिनना) या ‛फुलड़ा मारना’ कहते हैं। चम्बा क्षेत्र में होली के दिनों में इस तरह गिहणा को ‛हाक देणा’ कहते हैं।

जब दूसरे गांव के सभी घर वालों को गालियां समाप्त हो जाती हैं तो अन्त में सभी मुट्ठी-भर धूल लेकर उस गांव की ओर फेंक देते हैं और सभी एक स्वर से उस गांव के लिए अन्तिम अश्लील गाली देते हैं और पुनः बाजे-गाजे के साथ सांझे स्थान की ओर अश्लील गाने गाते और अश्लील अभिनय करते हुए मुड़ते हैं। परन्तु अब परिक्रमा नहीं होती, सामान्य रास्ते से पहुंचा जाता है। उस स्थान पर सभी लोग अपने हाथ की मशालें एक जगह पर इकट्ठा करते हैं।

इधर-उधर से लकड़ियों का अंबार लगाया जाता है और एक बड़ा ‛घियाना’ अर्थात्‌ अलाव जलाया जाता है। तब इस घियाने की ऊंची-ऊंची लपटों के गिर्दे लोग दायरे में खड़े हो जाते हैं। राक्षस का नाटक शुरू होता है। आधे लोग राक्षस का अभिनय करते हैं और आधे मनुष्य का। राक्षसों को गालियां निकाली जाती हैं, और राक्षस लोग अति लज्जाजनक अभिनय करते हुए कभी आग के ऊपर से छलागें मारते और कभी इधर-उधर भागते हैं। इस बीच अश्लील गानों का दौर चला रहता है। अभिनय दो प्रकार का होता है। एक में दायरे में वाद-संवाद चलते हुए आग के घियाने के गिर्द नाचते-कुदते हुए पंक्ति में प्रत्येक व्यक्ति अपने से अगले पुरुष को आग में धकेलने का प्रयत्न करता है, परन्तु साथ ही अपने से पिछले के धक्के से बचने की भी कोशिश करता है। दूसरे में वृत्त को छोड़ कर खुला उछल-कूद होता है, और यह क्रम सारी रात जारी रहता है।

झ़िहरू और बाण्ढू

गांव की परिक्रमा और दूसरे गांव को गिहणे के बाद जब घियाना की परिक्रमा हो जाती है तो दूसरे अश्लील नाट्य शुरू हो जाते हैं। इनमें से ‛झ़िहरू’ का पहला स्थान है। इसका मुख्याकर्षण अश्लील संवाद और अश्लील अभिनय है। दो मुख्य बूढ़े अश्लील गायन आरम्भ करते हैं और शेष उनका अनुकरण करते हैं और साथ-साथ अभिनय करते हैं। यदि दो बूढ़े थक जाएं या उनकी अश्लील शब्दावली समाप्त हो जाए तो अन्य चतुर बुज़ुर्ग उनका स्थान लेते हैं। उनका हर-एक पद तुकान्त होता है। शेष सभी अपने-अपने ढंग से उनकी शब्दावली और तुकबंदी के अनुसार दो बार अश्लील अभिनय करते हैं―एक बार जब मुख्य बूढ़े बोल रहे होते हैं और दूसरी बार जब वे स्वयं उन बोलों को दुहराते हैं। कुछेक केवल शब्दावली और तुकबन्दी दोहराते हैं। अभिनय नहीं करते। प्राय: अभिनय वही करते हैं जो अभिनय में चतुर हैं या जिसे पद के अनुसार तुरन्त अभिनय सूझ जाए। एक-एक पद को कई बार दोहराया जाता है और उसी अनुसार एक-दूसरे से छेड़खानी, अश्लील हरकतें और अभिनय जारी रखते हैं। दो मुख्य बूढ़ों की योग्यता इसमें है कि वे सुन्दर से सुन्दर अश्लील शब्दावली में तुकबन्दी करें और शेष की कुशलता इसमें है कि उनकी शब्दावली और तुकबन्दी के साथ अश्लील से अश्लील परन्तु बिलकुल मेल खाता हुआ अभिनय करें। यह सिलसिला कई घंटों तक चलता रहता है।घियाना, ज़ागरा ― कमान्द, कुल्लू

झ़िहरू आशु कवि की तुकबन्दी है, चतुर पात्र का अभिनय है और तेज़ गति की उछल-कूद का नाट्य है। इसलिए यह अधिक देर तक जारी नहीं रखा जा सकता। तब बाण्ढू नाट्य का आरम्भ किया जाता है। यह आराम से किया जाने वाला अभिनय है। इसके बहुत से संवाद और अभिनय पारम्परिक हैं जो हर वर्ष समान रूप से किए जाते हैं। इसमें तुरन्त अपनाई जाने वाली तुकबन्दी नहीं है; न ही पात्रों को तुरन्त समझने और किए जाने वाले अभिनय हैं। इसके गीत और अभिनय हैं तो अश्लील ही, परन्तु हर वर्ष समान रूप से किये जाने वाले हैं। उदाहरणार्थ एक ‛अश्लील बारहमासा’ है जिसकी शब्दावली बड़ी लज्जाजनक है। यह एक लम्बा गीत है जिसमें हर मास किए जाने वाले अश्लील कार्यों का बखान है। मुख्य बूढ़े उसके पद गाते हैं स्वयं अश्लील अभिनय करते हैं। शेष लोग उसे दोहराते हैं और अपने-अपने ढंग का अभिनय करते हैं। इसमें छोटे-छोटे अश्लील रूपक भी दर्शाए जाते हैं। एक-दूसरे पर कटाक्ष भी किए जाते हैं।

माघी से सात दिनों तक झ़िहरू और बाण्ढू लोक-नाट्य लगातार खेले जाते हैं। सातवें दिन को सत्दयाळे के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद भी ये माघ के अन्त तक खेला जाता हैं, परन्तु उसके बाद इनका कोई प्रचलन नहीं है।

पौष के सोहलवें और अगले दिनों भी यह खेल रात के समय खेला जाता है, परन्तु उतने उत्साह से नहीं। वास्तविक उत्साह लोहड़ी के दिन होता है और तत्पश्चात्‌ माघ के प्रथम सात दिन यह उत्साह उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। सातवें दिन को ‛सत्दयाळा’ कहते हें। उस दिन रात को लोक-नाट्य के रोज़मर्रा के प्रदर्शन का अन्तिम दिन होता है, जब पूरे जोर-शोर से प्रदर्शन होता है। उसके बाद दैनिक आयोजन तो बंद हो जाता है, परन्तु समय-समय पर स्थान-स्थान पर अन्तिम दिन तक कहीं-न-कहीं लोक-नाट्य जारी रहता है।

गनेड़

राखस खेलों का एक विशिष्ट अंश आज कुल्लू ज़िला के नगर, जगतसुख और मनाली गांवों के गनेड़ उत्सवों में देखा जा सकता है। नगर गांव में गनेड़ पौष मास की अमावस्या के चार दिन बाद होता है।

[उझी घाटी में पौष मास की अमावस्या को दियाळी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन नगर में] जगती पट मंदिर के सामने शाम होते ही सबसे पहले लकड़ी की मशालें निकाली जाती हैं। यह मशालें गांव वाले अपने-अपने घरों से लाते हैं। इन मशालों के प्रकट होते ही चारों दिशाओं के गांवों में जो भी इन्हें देखते हैं वहीं अपने-अपने घरों के अन्दर बरामदे में लकड़ी की मशालें जलाते हैं। सारा वातावरण जगमगा उठता है। [दियाळी से पूर्व की रात्रियों में मशालों और अश्लील नाट्यों का दौर झ़िहरू-बाण्ढू की तरह ही रहता है।] 

[गनेड़ के दिन सींगों का स्वांग और गूण का खेल होता है।] जगतिपट मंदिर में एक बहुत पुराना सींगों का जोड़ा है। कहते हैं कि जब जगतसुख के पाल राजा ने नगर के राणा पर आक्रमण किया तो नगर के राणा का भेडा (नर-भेड़) बड़ी वीरता से लड़ा था और उसने पाल राजा के अनेकों सैनिकों को घायल किया था। परन्तु युद्ध में पाल राजा विजयी हुआ, और उसने भेडा को जगती पट्ट पर लाकर देवता के नाम बलि चढ़ाया था। जगती पट्‌ट एक बहुत बड़ा सपाट पत्थर है जिसे कुल्लू के सभी देवता मधुमक्खी का रूप धारण करके रोहतांग पर्वत से लाए थे। चूंकि भेडा बहुत वीर था और शौर्य से लड़ा था इसलिए उसके सींगों को यादगार के रूप में सुरक्षित रखा गया और उनको हर वर्ष गनेड़ के अवसर पर प्रयोग में लाया जाता है।

गनेड़ के दिन इन सींगों को एक व्यक्ति के सिर पर बांध दिया जाता है जिसे ज़ठियाळी कहते हैं। अपने समाज में इसका स्तर अन्य से ऊंचा और ज्येष्ठ माना जाता है। सिर पर भेडे के सींग बांध कर ज़ठियाळी को दो अन्य आदमी मूसलों पर बिठा कर कन्धों पर उठाते हैं। उसके सिर पर भांग का मूठा करते हैं तब वह मंगलाचरण गाता है―

हे सू मंगल, केसू हाथ
हे सू मंगल, राजा हाथ
हे सू मंगल, रियाया हाथ
हे सू मंगल, सेवक हाथ
हे सू मंगल, धरेरी हाथ
हे सू मंगल, हिड़मा हाथ
“हे शिव-मंगल भगवान आपके हाथ शुभ हों। राजा, जनता, सेवक, धरती, हिड़मा देवी सब के हाथ शुभ हों।”

इस मंगलाचरण के बाद अश्लील गानों और अभिनय का दौर चलता है। मूसलों पर सवार ज़ठियाळी भेडे के सींग और भांग के मूठे के साथ पहले गालियां और अश्लील अभिनय करता है और शेष उसे दोहराते हैं। [यह गाने झ़िहरू और बाण्ढू के गानों और अभिनय से बहुत भिन्‍न नहीं हैं।] इसमें अश्लील गानों का पूरा बारह-मासा भी गाया जाता है।सींगो को पहने ज़ठाळी, नगर गनेड़ (2019)

इसी बीच गूण का खेल आरम्भ होता है। धान की पराली का बहुत लम्बा और मोटा रस्सा बनाया जाता है। इसे ही गूण कहते हैं। इस रस्से को एक तरफ से जाणा गांव के लोग पकड़ते हैं और दूसरी तरफ से नगर गांव के। दोनों में दौड़ का मुकाबला होता है। इन्हें तीन बार निर्धारित स्थानों के बीच ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दौड़ना होता है। इसे ‛ठोर देना’ या ‛ठोरा’ कहते हैं। पुराने समय में इन ठोरों में हारने वालों को कुछ दण्ड देना होता था। परन्तु अब यह प्रथा नहीं है। तीन दौड़ों में जहां दो दलों की हार-जीत का मुकाबला होता, वहां रस्सा-कस्सी की कशमकश और संघर्ष में गूण के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। तब लोग इन टुकड़ों को हाथों में लेकर नाचते, कूदते, उछलते, लड़ते हुए उत्सव का मनोरंजन बढ़ाते हैं।

कुछ लोग गनेड़ का सम्बन्ध धान की पराली से बने गूण से जोड़ते हैं―गूण से गनेड़। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि गनेड़ शब्द वास्तव में ‛नगेड़’ है जो ‛नाग-हेड़’ से बिगड़ कर बना है। नाग-हेड़ का अर्थ ‛नागों का समूह’ या ‛नागों का शिकार करना’ है और इस तरह गनेड़ का सम्बन्ध नागों की परम्परा से है। इस धारणा को गनेड़ में अपनाई जाने वाली क्रिया से भी पुष्टि मिलती है। दौड़ाई में प्रयुक्त धान की पराली का मोटा रस्सा सांप या नाग का प्रतीक है।

एक अनुश्रुति के अनुसार पुराने समय में कुल्लू के राणा घास के मोटे-मोटे रस्से बना कर उन्हें खेल और युद्ध के प्रशिक्षण के लिए काम में लाते थे। इन रस्सों को दो खम्भों के बीच बांध दिया जाता था और वे घोड़ों पर सवार होकर इन रस्सों के ऊपर से छलांग का अभ्यास करते थे। लोग इन रस्सों को हिलाते रहते थे।

एक बार नगर के सामने व्यास नदी की दूसरी ओर बड़ाग्रां के लोग नशे में व्यस्त हो गए और वे रस्से को अकेला छोड़ गये। रस्सा अकस्मात्‌ सांप में बदल गया और नदी पार करके नगर गांव की ओर भागा। मार्ग में एक गूंगे व्यक्ति ने उसे पूंछ से पकड़ लिया। सांप ने उस व्यक्ति को अपनी लपेट में ले लिया। तभी उस ओर जीव-नारायण देवता जा रहा था। उसने सांप को हाथ लगाया और वह पुनः रस्सा बन गया। तब से गूण का खेल नगर में आरम्भ हुआ। जगतसुख में भनारा और जगतसुख के लोग और मनाली में शलीण और मनाली के लोग इस खेल में प्रतिद्वंदी होते हैं।

फागळी

जिन क्षेत्रों में राखस-खेल फागुन के अन्त तक रहते हैं वहां फागुन महीने के खेल ‛फागळी’ नाम से प्रसिद्ध हैं। इन खेलों में वाद्य-यन्त्र वही प्रयोग में लाए जाते हैं, जो साधारण नृत्य के समय प्रयुक्त होते हैं अर्थात्‌ ढोल, नगारा, दमामा, करनाल, रणसिंहा आदि। अभिनय करने वाले लोग अपने कपड़ों के बाहर घास-फूस का लिबास पहनते हैं। घास में प्रमुखत: ‛रावल’ नाम का घास विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता है। इसके मोटे और लम्बे पत्ते लिवास का रूप सहज ही धारण करते हैं। मुंह पर प्राचीन समय से सुरक्षित मखौटे पहने जाते हैं जो लकड़ी के बने होते हैं। यह मखौटे पुराने समय की उत्कृष्ट कारीगरी के उदाहरण हैं। रावल घास के लिवास और लकड़ी के मखौटों से उनका रूप बड़ा भयानक लगता है और वे राक्षस से कम डरावने नहीं लगते। वाद्य-यंत्रों के संगीत में वे नाचने लगते हैं परन्तु उनका नाच साधारण नहीं होता। वे उलटे-सीधे उछल-कूद करते हैं। छलांगे मारते हैं। अपने में एक-दूसरे के ऊपर सवारी करते हैं। कभी मल्लयुद्ध का प्रदर्शन करते हैं। नाचते और अभिनय करते हुए वे दर्शकों को देखते रहते हैं। उनके हाथों में अनेक तरह के आभूषण होते हैं। साथ ही हर एक के पास एक गठड़ी होती है। गठड़ी में भी आभूषण और सुन्दर कपड़े डाले होते हैं, जिनमें पट्टू, कमीज, सलवार, पाजामे आदि होते हैं। पुरुष और स्त्री दोनों के वस्त्र उस गठड़ी में बंधे होते हैं। वाद्य-यन्त्रों के संगीत के बीच आपस में उछल-कूद, कुश्ती, मल्ल-युद्ध करने के बाद वे दर्शकों में प्रवेश करते हैं। दर्शक चारों ओर कुछ दूर ऊंची-नीची धरती पर बैठे उनका तमाशा देख रहे होते हैं। ज्योंही वे दर्शकों के बीच प्रवेश करते हैं, लोगों में हलचल मच जाती है। वे दर्शकों में किसी लड़की या स्त्री, या सुन्दर लड़के की तलाश करते हैं। अपने लक्ष्य को ढूंढ कर वे उसे दर्शकों में से उठाकर रंगमंच पर ले आते हैं और अपनी पंक्ति में खड़ा करते हैं। तब गठड़ी को खोलकर और अपने हाथों के आभूषण उतार कर एक-एक करके उस लड़की, स्त्री या सुन्दर लड़के को दिखाते हैं। उसे यह वस्त्राभूषण देने का अभिनय करने लगते हैं। यदि वह न पहने तो स्वयं उसके शरीर में बांधना और पहनाना आरम्भ करते हैं। उसे अपनी पत्नी या साथी बनाने का अभिनय करते हैं। वह लड़की या स्त्री भी अपने सामर्थ्य के अनुसार उनके अभिनय का उत्तर देती है। वह प्रायः मुंह से ही बोलती है। वह उन्हें गालियां भी देती है और वे अश्लील प्रदर्शन भी करते हैं। यह खेल निश्चित रूप से राक्षसों द्वारा मनुष्य को तंग करने की याद में मनाया जाता है। कुछ स्थानों पर इसे ‛टुण्डी-खेल’ के नाम से जाना जाता है।कुल्लू की उझी घाटी की एक फागळी में मुखौटा पहने व्यक्ति

लोक-विश्वास के अनुसार किसी समय टुण्डी नाम का राक्षस लाहुल-स्पिती से लेकर नेपाल तक का शासक था। कुछ स्थानों पर इसे राक्षस माना जाता है। किसी युद्ध में इसका एक हाथ कट गया था। तभी इसे टुण्डी कहते हैं। अनुश्रुति के अनुसार जब यह मिलता है इसका हाथ नहीं होता। इन खेलों में उस राक्षस या राक्षसी की क्रूरता का प्रदर्शन होता है। अनेक बार ऐसे प्रदर्शन के समय टुण्डी की आत्मा सचमुच किसी आदमी में प्रवेश करती है। ऐसा आदमी जोर-जोर से चिल्लाना आरम्भ करता है और उछलता हुआ सबसे पहले आग की मशालों पर झपटता है और कोयलों को खाना आरम्भ करता है। उसे अपनी दशा में लाने के लिए देवता का गूर मंत्र पढ़ता है और शंख के पानी में मंत्र पढ़ कर उसे पिलाता है। तब थोड़ी देर बाद वह ठीक हो जाता है। वस्तुतः ग्राम्य जीवन में प्रत्येक गांव में राक्षसों की अदृश्य रूप से उपस्थिति मानी जाती है। अनुश्रुति है कि प्राचीन समय में विभिन्‍न क्षेत्रों में भूत-प्रेतों और राक्षसों के कारण मनुष्यों का जीवन-यापन और बसना सम्भव नहीं था। बाद में ग्राम-देवताओं ने इन दुरात्माओं को गांवों से बाहर भगा दिया। राक्षसों के अत्याचारों और दुष्कर्मों को दर्शाने हेतु आज तक लोग राक्षसों का प्रतीक बनकर प्रदर्शन करते हैं और लोग उनको बुरा-भला कहते हैं।


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