सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग, हिमाचल प्रदेश की मासिक पत्रिका हिमप्रस्थ, वर्ष 2019-20 के संयुक्तांक 11-12 (फरवरी-मार्च, 2020) में छपा सुदर्शन वशिष्ठ जी द्वारा लिखित एक आलेख।
यूं तो किसी भी भाषा का निर्माण सदियों से चली आ रही परंपरा और संस्कारों से होता है। समय के अनंतर उसके साहित्य का निर्माण और फिर व्याकरण व भाषा विज्ञान बनता है। किंतु यह भी सत्य है कि भाषा का प्रयोग, प्रचलन व विकास राजतन्त्र की शक्ति के माध्यम से होता है। जो राजा की भाषा होगी, वही प्रजा की भी होगी।
सदियों तक हमारा देश मुस्लिम शासकों के अधीन रहा। हालांकि इन शासकों की भाषा और भारत में विद्यमान भाषा में ज्यादा अंतर नहीं था किंतु उन्होंने उर्दू फारसी को हिन्दुस्तानियों पर ऐसा थोपा कि सभी उसका प्रयोग जाने अनजाने करने लगे। मुस्लिम शासकों को मिटे भी सदियां हो गईं, मगर यह प्रयोग आज तक जारी है। हमारी पूरी की पूरी राजस्व शब्दावली आज भी उर्दू फारसी में है। गांव के अनपढ़ लोग उसकी शब्दावली को बोलते समझते हैं। जमीन, कब्जा, कब्जानाजायज, जमीदारी, खाता खतौनी, जमाबंदी, इंदराज, इंतकाल, मुआवजा जैसे शब्द आम ग्रामीण समझते और बोलते हैं। उधर आम जिंदगी में बोलचाल के शब्द जैसे जरूर, गजब, खैर, गरूर, रफादफा, वफा, बाजार, अर्ज, सफाई, फैसला हमारे प्रयोग में रमते गए। सरकारी कार्यालयी प्रयोग के शब्द जैसे मुलाजिम, अफसर, दफतर, हाजिर, मेज कुर्सी भी आए। कुरता पायजामा जैसा पहरावा भी हमारा हुआ। इस तरह से न जाने उर्दू फारसी के कितने शब्द हम रोज प्रयोग में लाते हैं, यह न जानते हुए कि ये किस भाषा के शब्द हैं। यह सब शासक की सूझ-बूझ या चालाकी से हुआ।
मुसलमान शासकों के बाद अंग्रेज आए। अंग्रेजों ने भी अपनी भाषा को आमजन में इस तरह से लागू किया कि हमें पता ही नहीं चला कब हम लोग स्कूल, कॉलेज, इंस्पेक्टर, कलक्टर, पेन, पेपर, बी०ए०, एम०ए०, कोर्ट, जज बोलने लगे। अंग्रेज भी चले गए पर अंग्रेजी अपने पैर और पसारती गई। अब तो बूढ़ी दादियां भी मूड की बात करती हैं। ये शासकों की नीति थी कि कैसे राजभाषा को सरकार से आगे आमजन तक पहुंचाया जाए। आज गांव में लोग अंग्रेजी के कई शब्द बोलते हैं, यह न जानते हुए कि ये अंग्रेजी के हैं।
पहाड़ी का उद्भव
अंग्रेजों के बाद या अंग्रेजों के समय में ही राजशाही का दौर आया। हिमाचल की बात करें तो यहां तीस से अधिक छोटी बड़ी रियासतें थीं। मोटे तौर पर यह पन्द्रहवीं सदी से आरम्भ माना जा सकता है जब हिमाचल में छोटे बड़े राजाओं ने शारदा और संस्कृत को छोड़ अपनी भाषा में शिलालेख, पुरालेख, काष्ठ लेख और फरमान जारी करने आरम्भ किए। पहले संस्कृत, फिर अशुद्ध संस्कृत, फिर पहाड़ी में ये लेख लिखे जाने लगे। ये लेख टांकरी लिपि में, बिगड़ी हुई अशुद्ध संस्कृत और मिलीजुली खिचड़ी भाषा में थे जो पहाड़ी का पुरातन स्वरूप माना जा सकता है।
उदयपुर का अशुद्ध संस्कृत में मृकुला देवी लेख इस प्रकार है:
“ओं ठकुर-महश्री-हीमपालन। श्री महादेवि-मर्कुल उदी। पित्रुः पुत्र पौत्रेण सर्वेकाल तिष्ठति देव – श्रीयो भवित। तं म शुभ कुत्र श्री कश्मीर यदवंत मार निरह्ल मर्कुलदेवि उपनि….।”
चंबा में पनघट शिलाओं पर लेख की पंरपरा थी। चामुण्डा (देवी री कोठी), जिसे चंबा के राजा उमेद सिंह ने सन् 1754 में बनवाया, में टांकरी में निम्न लेख है:
“सं० 30 भाद्रो प्र० 21 लगायत अथ जे श्री महाराजे उमेद सिंघे श्री देवी चामुण्डा रा देहरा पया। देहरे दा सरदार श्री मियां बिसन सिंघ। हाजरी निल्हेड़ी छंयां सुगलाल झगडू। त्रखाण गुरदेव झंडा। बटेहड़ा हैलू देबू गठीर द्याल पोह प्र० 21 संवत् लिख्या। शुभ।”
चंबा में ऐसी भाषा और टांकरी लिपि में बहुत से लेख मिलते हैं।
मनाली की हिडिम्बा देवी के द्वार पर टांकरी में लेख है जिसके अनुसार इसे राजा बहादुरसिंह ने सन् 1553 में बनवाया। ऐसे बहुत से लेख देवताओं के मोहरों पर खुदे हैं।
चंबा के राजा राजसिंह और कांगड़ा के राजा संसारचंद के मध्य संधि पत्र इस प्रकार लिखा गया:
“श्रीराम जी लिखत श्री राजा राजसिंघ श्री राजा संसार चंद की धरम लीखी दित्ता धरम एक जे सुत्र दूहीं सहना कीठा रखणा इक हकम दूहीं अपणे अपणे बन्ने पर दूही कायम रहणा।”
बिलासपुर में लिखी पहाड़ी का एक उदाहरण:
“ओं। माहराजे श्री हीरचंदे बचने प्रती हजूर ऊपर हुए औबटी बलासपुर बजारे बीच गणसुर बरमणे अलुहुहए ते उत्तर दे। कनारे कजारीए पुल दे सुलतानी च ए चढ़े….।”
कुल्लू की एक पाण्डुलिपि में इस प्रकार लिखा गया:
“भादर सिंह से पहिले जो राजे हुए उनका राज परोल बजीरी पर ही रहा। रूपी बाजीरी में ठाकुरों का राज था जो सुकेत के राजा को नजराना दिया करते थे।”
एक और उदाहरण:
“फेर राजा मकड़ाहर से उठेया होर रघनाथजी भी सुल्तानपुर आई गे। रघनाथजी का मंदर पाऐया, होर महल पाए सेहा बसाऐया। उसके पीछे कभी राजा सुल्तानपुर में रहे, कभी नगर में रहे।”
राजाओं के राज में चंबा से लेकर कुल्लू और बुशहर तक। लगभग एक सी ही भाषा का प्रयोग देखने को मिलता है। इसका मुख्य कारण यह है कि इन दस्तावेजों को लिखने वाले कायस्थ थे जो इन सभी राजाओं के यहां रहते थे। उस क्षेत्र की आम बोली चाहे कैसी भी हो, ये लागे अपनी ही भाषा में दस्तावेजों को लिखते थे। अतः पूरे पहाड़ी राज्यों के दस्तावेजों की भाषा एक सी है। टांकरी लिपि में थोड़ी बहुत भिन्नता पाई जाती है। जिस तरह हम अंग्रेजी बोलते-बोलते स्वाभाववश हिन्दी और फिर पहाड़ी में आ जाते हैं, ठीक उसी तरह वर्तमान पहाड़ी का भी उद्भव हुआ है। इसका सटीक उदाहरण चंबा के लक्ष्मीनारायण मन्दिर की मुख्य प्रतिमा के ऊपर चांदी के तोरण लेख में मिलता है जिसमें जैसी तैसी संस्कृत के बाद लिखने वाला सीधा पहाड़ी में आ जाता है:
“उों! स्वस्ति श्री मान्नपतिवर बिक्रमादित्य संवत्सरे 1804 शलिवाहन शाके 1669 श्री मान्नृपतिवर दलेल सिंह राज्य मुक्त वर्षगणे 13 छक्षिणेयायने वर्षा ऋतो श्रावणे कृणैकादश्यां बुधे मृगशिर नाम नक्षत्रै श्रीश्रीश्री लक्ष्मा नारायण प्रीत्यर्थ…”
अंत में पहाड़ी में नामादि आते हैं:
“चित्रकारादयः चित्रकारौ लैहरू महेशौ स्वर्णकारौ यीरजू किरपू ताम्रकारौ जैराम किरपू तत्रधिकारिणः होलालू दुर्गादास पोटरू भगवान सोनि वाणिया लुद्र मेहता पंडित दया राम पुज्याल़े लक्षु ढीचू कीरपू पाहरी प्रसादु अबलू हरिया सन्तोखू इन्हादे पाले चाढ़या, कोठयाला शिवराम शास्त्र संवत 23 ज्ञावण प्र० 21 लिख्या शुभम्।”
इसी तरह के बिगड़ी हुई संस्कृत के पहाड़ी में आने के उदाहरण सिरमौर तथा महासू में उपलब्ध सांचा ग्रन्थों में भटाक्षरी, पण्डवाणी और पाबुची में भी मिलते हैं।
टांकरी के बाद पहाड़ी में लिखित काव्य
आमजनों में कविता करने वाले कवियों ने ब्रजभाषा या ऐसी ही किसी दूसरी भाषा का प्रयोग अपने काव्य में किया। साहित्य की रचना तथा इसके संरक्षण में गुलेर राज्य अग्रणी रहा। इसके अंतिम राजा बलदेव सिंह ब्रजभाषा के कवि थे। इनकी एक गीतिका में पहाड़ी का पुराना स्वरूप देखने को मिलता है:
मेरे मनैं हरि का नाम पिओरा, पूर्व जाइये न्हौइये श्रीगंगा किनारे राम धन धन राणिये दुर्गा देइये तैं तैं गोबिंद सौ चित्त लायआ।
पहाड़ी कवियों में कांशीराम, रूद्रदत्त, गणेश सिंह बेदी प्रमुख हैं। कांशीराम ने ‘रामगीता’ लिखी। रूद्रदत्त राजा शमशेर सिंह के दरबारी कवि थे जिन्होंने छंदों का प्रयोग किया:
अज्ज सौंपणा घर गुआंढणी की अत अप्पू की छैल सिंगार बणाणा।
उन्हें होए मते दिन आया दियां, न्वोड़े मनैं दा जाई कैं रोस चुकाणा।
नहीं जाणदी असौं कुत गल्ला रूठे, गल लाई के सज्जण अप्पूं मनाणा
तुस्स दौंएं सहेलियां साथ चल्लौ, असे अपणे प्यारे की दिक्खण जाणा।
कवि देवदत्त ने कांगड़ा और चंबा के युद्ध का वर्णन किया है:
एक दिवस चंबयाल को दूत पुकारयो जाह बाको दुर्ग पठियार को लियो कटोच छिनाई।
कवि मोलाराम ने महाराज संसारचंद और गोरखों के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया है:
रस्त बंद सब करी तहां ही। खलबल पड़ी किले के माहीं।
खाली भये भंडार कुठारा। बाहर अन्न न आवे मारा।
त्राहि त्राहि गढ़ भीतर भई। नर नारी सब मूर्छित रही।
पहाड़ी के आदि कवि पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम
इसके बाद सुजानपुर टिहरा में जन्मे कवि हरिनामदास, ने लगभग 1920-40 में पहाड़ी रचनाएं लिखीं। पंडित हरलाल डोगरा (दतारपुर), रुद्रदत्त दीक्षित (सुजानपुर टिहरा), बृजलाल (हमीरपुर), सोमनाथ (हरिपुर) आदि कवियों ने पहाड़ी में रचनाएं कीं।
बाबा कांशी राम वही व्यक्ति थे जिन्हें पं० जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में गढ़दीवाला होशियारपुर में हुए सम्मेलन में ‘पहाड़ी गांधी’ कह कर सम्बोधित किया। इनके गीतों को सुन कर सरोजनी नायडू ने इन्हें ‘बुलबुल-ए-पहाड़’ की उपाधि दी। सन् 1931 में सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत का इनपर बहुत गहरा असर हुआ और इस दिन से उन्होंने शोक जताने के लिए काले कपड़े पहनने आरम्भ किए:
राजगुरू, भगतसिंह सुखदेवे
फांसी ते झुलणा पेया
काले कपड़े पायी के अस्से सोग मनाया।
इन शहीदों का जिक्र इन्होंने बार-बार अपनी कविताओं में किया है:
इकट्ठे हो के हिन्दियां ने जद राग आजादी गाया
जलियां वाले बाग अंदर गोली नाल उड़ाया
फड़ फड़ काले पाणी भेजेया जालम जुल्म कमाया
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू जानों मार मुकाया।
महात्मा गांधी और फ्रंटियर गांधी की तरह पहाड़ों में भी एक ‘पहाड़ी गांधी’ पैदा हुआ जिसने अपने आजादी के गीत गा-गा कर लोगों में स्वाधीनता का जज्बा पैदा किया। सोयी हुई कौम को जगाने के लिए पहाड़ी गांधी ने नारा दिया:
साडे देसे दे लोकि सब सुते
इन्हां बढेया अपणा नक्क लोको
उजड़ी डोगरे देस जाणा।
11 जुलाई 1882 को डाडासीबा में जन्मे बाबा जी ने पहाड़ी (कांगड़ी) में सन् 1900 के प्रारम्भ में गीतरचना प्रारम्भ की। उन्हें गाने-बजाने का शौक तो बचपन से ही था। बचपन में ही वे लाहौर आ कर रहने लगे। लाहौर के अनारकली बाजार की धोबी मंडी में कांगड़ा से बहुत से लड़के आ कर सेठ साहूकारों के यहां काम करते थे। इन्हें ‘मुंडू’ कहा जाता। जहां कांशीराम रहते थे, वहां भी गायन का माहौल था। वे यहां पंजाबी मिश्रित पहाड़ी में गाया करते थे। इन की कविताओं में मुख्यतः पहाड़ी और उसके साथ पंजाबी और कहीं-कहीं हिन्दी का प्रयोग भी दिखाई देता है।
बाबा कांशीराम एक जन कवि या लोक कवि थे। लोक कवि की उड़ान बहुत ऊंची किंतु लोक के करीब होती है। लोक कवि देर तक याद रखा जाता है। उसकी कविताएं या गीत देर तक जनमानस में छाए रहते हैं और बहुत बार आगे यात्रा भी करते हैं। बाबाजी की कविताओं के साथ भी ऐसा ही हुआ। ये कविताएं रहीं। ‘लोकांदा चली पेया राज लोको’ गीत इस का उदाहरण है जो बाबाजी के न रहने और स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी लोगों द्वारा गाया जाता रहा।
सैंकड़ों कविताओं की रचना के साथ बाबाजी ने दो खण्ड काव्य ‘कुणाले दी कहाणी’ तथा ‘नाने दी कहाणी’ लिखे। इनके पहाड़ी में दो उपन्यास ‘बाबा बालक नाथ कनै फरियाद’ तथा ‘चतरो कनै रेसो’ भी बताए जाते हैं। इनकी रचनाओं की मूल प्रतियां इनके पुत्र वैद्य सवायाराम के पास सुरक्षित थीं।
मुक्त छंद से गीतों की रचना कर समय और स्थिति के अनुसार उन्होंने मौके पर कविताओं और गीतों को रचा और गा कर सुनाया। धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्र भक्ति व चेतना से ले रोमांटिक थीम; सब तरह के विषयों पर उन्होंने रचना की। सामाजिक शोषण, कुरितियों पर चोट, जाति प्रथा, छुआछूत व ऊंच नीच का विद्रोह, किसान दुर्दशा, सांप्रदायिकता का विरोध, नारी शक्ति की स्थापना, सद्भाव व सदाचार की हिमायत उनकी कविताओं के विषय रहे। इस सबके बीच एक क्रांति का तीखा स्वर इनकी कविताओं में हमेशा गूंजता रहा।
जिस प्रकार संग्राम के समय अपनी कुलदेवी को मात्था टेक कर योद्धा प्रस्थान करता है, बाबाजी ने भी उसी प्रकार कुलजा को मात्था नवा कर स्वाधीनता संग्राम में प्रवेश डंके पर चोट के साथ किया। मनुष्य एक ही बार जन्म लेता है। उसे अपनी जिंदगी की, मां-बाप की लाज रखने के लिए और देश पर कुर्बान होने के लिए कुलदेवी को मात्था नवा कर तैयार होना है:
कांशीराम जिंद गवाणी
जिंद लाज नी लाणी
इक्को बार जम्मणा
अम्मा बब्बे दी लाज रखणी
देस बड़ा है, कौम बड़ी है
जिंद अमानत उस देस दी
कुलजा मत्था टेकी कने
इन्क्लाब बुलाणा
ओ कांशी! असां फिरि जेला जाणा।
अन्य सेनानियों के साथ कई बार जेल भी जाना पड़ा। पराधीन भारत को आजाद कराने के लिए इन्होंने यह गीत गा कर आजादी का बिगुल बजाया:
एह मत पुच्छ मेरिए बहणे
मैं कुण, कुण घराना है मेरा
सारा हिन्दुस्तान है मेरा
भारत मां है मेरी माता
जो जंजीरां जकड़ी है
ओ अंगरेजां पकड़ी है
उस जो आजाद कराणा है।
आजादी की लड़ाई में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद ये स्वाधीन भारत को देख नहीं पाए। 13 अक्तूबर 1943 को स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व ही इनका देहांत हो गया। 23 अप्रैल 1984 को भारत सरकार द्वारा इन पर डाक टिकट जारी किया गया। डाक टिकट जारी किए जाने के श्रीज्वालामुखी में हुए इस समारोह में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ स्व० नारायणचंद पराशर (सांसद) तथा पहाड़ी गांधीजी के पुत्र वैद्य स्वायाराम भी उपस्थित हुए। स्व० नारायण चंद पराशर ने बाबाजी पर एक मोनोग्राफ भी लिखा जो साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया। एक मोनोग्राफ अकादमी द्वारा भी प्रकाशित किया गया। भाषा-संस्कृति विभाग द्वारा पहाड़ी में लेखन के लिए ‘पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम राज्य सम्मान’ आरंभ किया गया।
पहाड़ी: एक जरूरत
हिमाचल के कुछ पर्वतीय भागों को हिमाचल में मिलाने के स्थान पर पंजाब में शामिल किए जाने की मुहिम के समय पहाड़ी भाषा व संस्कृति एक जरूरत के रूप में सामने आई। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा समय-समय पर तरह-तरह की सिफारिशें की जाती रहीं। एक बार तो हिमाचल को पंजाब में मिला कर महापंजाब बनाने की बात भी सोची गई। इस बीच पुराने हिमाचल और नये हिमाचल दोनों के नेताओं ने सूझबूझ दिखा कर आपस में मिलने की योजना बनाई। भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात उठाई गई। जनगणना में ‘पहाड़ी’ को अपनी मातृभाषा लिखाने का अभियान चला। इन सारे प्रयासों के बाद प्रथम नवम्बर 1966 का ही वह दिन था जब केन्द्र ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल-स्पीति, ऊना, शिमला, नालागढ़, डलहौजी, बकलोह के पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल में मिला कर विशाल हिमाचल का गठन किया। इस पुनर्गठन के पीछे पहाड़ी क्षेत्र की भौगोलिक इकाई के साथ-साथ पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ी भाषा का विशेष महत्त्व रहा। प्रथम नवम्बर 1966 को केन्द्र सरकार ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल-स्पिति, ऊना, शिमला, नालागढ़ तथा डलहौजी, बकलोह को हिमाचल प्रदेश में मिलाया। अब इस प्रदेश का क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर हो गया। प्रथम नवम्बर को ‘पहाड़ी दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा।
सरकारी संरक्षण
जैसाकि पहले विवेचित हुआ है, किसी भी भाषा के प्रोत्साहन व विकास के लिए सरकारी संरक्षण आवश्यक है। हिंदी यदि राजभाषा बनी है तो सरकारी संरक्षण से। विशाल हिमाचल के उस दौर में अपनी भाषा व संस्कृति के प्रति सरकार जागरूक हुई। साथ ही डॉ० यशवंत सिंह परमार और लालचंद प्रार्थी जैसे पहाड़ी संस्कृति और भाषा के पोषकों के हाथ में सरकार की कमान आई। भाषा-संस्कृति विभाग बनने से पहले शिक्षा विभाग के अंतर्गत ‘राज्य भाषा संस्थान’ द्वारा ‘हिन्दी-हिमाचली (पहाड़ी) अनन्तिम शब्दावली’ निकाली गई थी जिसमें 2000 शब्दों के पर्याय दिए गए थे।
पहाड़ी भाषा के उत्थान के लिए 30 सितम्बर 1970 को हिमाचल प्रदेश विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया। जिसके अन्तर्गत प्रदेश की कला, संस्कृति और भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन और विकास के लिए ‘हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी’ के गठन का निर्णय लिया गया। सरकार अधिसूचना सं० 8-9/71 एलडब्ल्यूपी लैंग० दिनांक 14 अप्रैल 1971 द्वारा अकादमी का गठन हुआ और 2 अक्तूबर 1972 को विधिवत् इस संस्था का उद्घाटन हुआ। अकादमी का गठन प्रदेश की भाषाओं के उत्थान के लिए एक एतिहासिक घटना थी और यह संस्था पहाड़ी के उत्थान के लिए एक मील पत्थर के रूप में स्थापित हुई। क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष श्री लालचंद प्रार्थी पहाड़ी भाषा व संस्कृति के उत्थान के प्रति प्रतिबद्ध थे, अतः उस समय पहाड़ी भाषा का एक आन्दोलन सा चला। श्री लालचंद प्रार्थी के प्रयासों से ही शिक्षा विभाग के अधीन राज्य भाषा संस्थान के बाद 1972 में ही स्वतन्त्र विभाग के रूप में ‘भाषा एवं सांस्कृतिक प्रकरण विभाग’ के नाम से स्थापना हुई।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि तत्कालीन सरकार ने अपने को हिन्दी राज्य न कह कर ‘पहाड़ी राज्य’ कहा और हिन्दी राज्यों में ग्रन्थ अकादमियों को मिलने वाला एक करोड़ रूपया ठुकरा दिया। फलतः हिमाचल प्रदेश में अन्य हिन्दी राज्यों की तरह ग्रन्थ अकादमी नहीं बन पाई।
उस दौर में विभाग तथा अकादमी द्वारा पहाड़ी के उत्थान के लिए जो कार्य किए गए, वे सराहनीय थे। प्रदेश में पहाड़ी का एक माहौल बना और अनेक कवि लेखक सामने आए। विभाग द्वारा पहाड़ी में “काव्य धारा” पुस्तकों की एक श्रृंखला तीन भागों में निकाली गई। अमर सिंह रणपतियां द्वारा ‘गादी शब्दावली’ का प्रकाशन हुआ। उधर अकादमी द्वारा ‘पहाड़ी लोक रामायाण’, ‘छनाट’, ‘माला रे मणके’, ‘कथा सरवरी’ के दो भाग, ‘देई जुल्फू’ और ‘पहाड़ी रचना सार’ जैसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन निकाले गए।
पहाड़ी में छपी पुस्तकों की खरीद, प्रकाशन सहायतानुदान व अन्य प्रोत्साहनों से प्रदेश में पहाड़ी के प्रति एक वातावरण तैयार हुआ। अकादमी द्वारा शक्तिचंद राणा, ओंकारलाल भारद्वाज, अश्विनी गर्ग, संसार चंद प्रभाकर, नरेन्द्र अरूण, जगदीश कपूर, मदन हिमाचली, शंकर सान्याल, शम्मी शर्मा, एम० कुसुम मटौरवी, देवराज संसालवी, स्वर्णकांता शर्मा, हरिकृष्ण मुरारी, कुलदीप सिंह वरजाता दीप, दिनेश कुमार शास्त्री आदि कई पहाड़ी लेखकों को पुस्तक प्रकाशन योगदान दिया जिस से इनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
इस दौर के बाद पहाड़ी की धारा अवरुद्ध हुई और कभी रुकने और कभी चलने के स्थिति आती रही। हां, नारायणचंद पराशर के संस्कृति मन्त्री बनने पर पहाड़ी का दौर पुनः लौटा और अकादमी में पहाड़ी के विकास के लिए प्रकाशन सहायतानुदान, पहाड़ी पाण्डुलिपि पुरस्कार जैसी विशेष योजनाएं चलाई गईं। पहाड़ी के लिए ‘शिखर सम्मान’ की स्थापना हुई। ये शिखर सम्मान वर्ष 1994 में भवानीदत्त शास्त्री व श्यामलाल डोगरा को, वर्ष 1995 में चन्द्रशेखर ‘बेबस’ को, वर्ष 1996 में मनोहर सागर पालमपुरी को और वर्ष 1997 में आचार्य दिवाकर दत्त, संसारचंद प्रभाकर और कमला वर्मा कमल को दिए गए। साहित्यकार सम्मान योजना तो सभी भाषाओं के लिए थी ही। विभाग में पहाड़ी के लिए राज्य सम्मान स्थापित किया गया जो जयदेव किरण को मिला। विभाग द्वारा पहाड़ी में हिमभारती पत्रिका आरम्भ की गई जिसे बाद में अकादमी को दिया गया।
पहाड़ी में प्रमुख स्वर: कविता
अपने प्रारम्भिक काल में पहाड़ी के प्रति कुछ समर्पित व्यक्तित्वों ने महत्ती भूमिका निभाई। कुल्लू में पुरोहित चंद्रशेखर ‘बेबस’, मास्टर नेसूराम, एम०आर० ठाकुर, चंबा में हरिप्रसाद सुमन, कांशीराम आत्रेय, अमर सिंह रणपतिया, मंडी में पं० भवानीदत्त शास्त्री, सिरमौर में खुशीराम गौतम, विद्यानंद सरैक, कांगड़ा में पीयूष गुलेरी, गौतम व्यथित, संसारचंद प्रभाकर, सागर पालमपुरी, शम्मी शर्मा, बिलासपुर में शब्बीर कुरेशी, हमीरपुर में भगतराम मुसाफिर, कमला वर्मा कमल, बी०आर० मुसाफिर, कमल हमीरपुरी, शिमला में जयदेव किरण, काहनसिंह जमाल, हरिराम जस्टा आदि विद्वानों ने पहाड़ी की जोत जगाई।
पुरोहित चन्द्रशेखर की एक कविता पुस्तक ‘तीतर चाकर’ प्रकाशित हुई। इन्हें अकादमी की ओर से ‘शिखर सम्मान’ दिया गया। पं० भवानीदत्त शास्त्री ने गीता और कई उपनिषदों का मण्डियाली में अनुवाद किया। मण्डयाली में गीता गायन के लिए वे प्रसिद्ध रहे। वर्ष 1984 में इनका पहाड़ी काव्य ‘लेरा धारां री’ प्रकाशित हुआ। इन्हें वर्ष 1983 तथा वर्ष 1988 में अकादमी पुरस्कार तथा वर्ष 1989 में हिमधारा की ओर से ‘पहाड़ी साहित्य चूड़ामणि सम्मान’ दिया गया।
ठेठ पहाड़ी मुहावरे का स्वर भगतराम मुसाफिर में देखा गया जो प्रेम भारद्वाज से होता हुआ त्रिलोक सूर्यवंशी, रत्नचंद निर्झर और विनोद भावुक तक बहने लगा। पहाड़ी कविता में सी०आर०बी० ललित का काव्य संकलन “जीऊणे रे आशु” प्रथम संकलन माना जाता है। उधर कांगड़ा से डॉ० पीयूष गुलेरी का ‘मेरा देस म्हाचल’ और गौतम व्यथित का सातवें दशक ‘चेते’ प्रकाशित हुआ। इसके बाद लगातार काव्य संकलन आते रहे। इन में संसार चंद प्रभाकर द्वारा रचित ‘माया’ महाकाव्य का उल्लेख किए बिना बात अधूरी रह जाएगी। इनके साथ सर्वश्री ओमप्रकाश ‘प्रेमी’, शेष अवस्थी, रूपसिंह फूल, मनोहर सागर पालमपुरी, प्रेम भारद्वाज, सुदर्शन कौशल नूरपुरी, प्रत्यूष गुलेरी प्रारंभिक कवियों में उल्लेखनीय हैं जिनके संकलन आए। इनके बाद बी०आर० मुसाफिर, शबाब ललित, प्रीतम चंद प्रीतम, शक्ति राणा, नवीन हलदूनवी, मेहरचंद दर्दी, रोशनलाल संदेश, प्रिया शर्मा, भगत राम मंढोत्रा, रेखा डढवाल, रमेश मस्ताना आदि ने अपने काव्य संकलनों के माध्यम से दस्तक दी।
पहाड़ी में प्रमुख स्वर कविता का रहा हालांकि किसी भी साहित्य की स्थापना के लिए गद्य का होना परमावश्यक है। गद्य में भी निबंध को साहित्य की कसौटी माना गया है। तथापि शुरुआत के लिए कविता एक सशक्त माध्यम था जिससे जन-जन में पहाड़ी की लौ जगी। हालांकि प्रारम्भ में कुलभूषण कायस्थ और रूप शर्मा ने कहानी उपन्यास लिख कर वर्ष 1983 में प्रथम अकादमी पुरस्कार भी पाए तथापि बाद में लोग कविता ही कविता लिखने लगे। और जैसा कि हर भाषा के साहित्य में होता है,पहले पहल कवि ही बड़ी संख्या में सामने आए। हालांकि साहित्य की कसौटी पद्य नहीं, गद्य माना जाता है। पहाड़ी में सदा गद्य लेखन कमी रही, जो आज भी बनी हुई है। कुछेक कहानियों के अतिरिक्त निबंध लेखन भी कम रहा।
बात यहां काव्य की है। पहाड़ी काव्य की यदि आजादी के बाद की बात की जाए तो प्रारम्भिक कवियों ने न जाने क्यों शृंगार को प्रधानता दी। धौलाधार का सौंदर्य, हिमाचल प्रशस्ति जैसे विषय कवियों को प्रिय रहे। काव्य शैली में भी वे पीछे की ओर गये यानि कवित्त, सवैये जैसे छंदों का प्रयोग करने लगे। हालांकि आजादी से पहले बाबा कांशीराम जैसे कवियों ने उस समय के अनुसार अतिआधुनिक शैली और समसामयिक विषयों को छंद से बाहर पकड़ा यथा: “देस बड़ा है, कौम बड़ी है। जिंद अमानत उस देस दी। कुलजा मत्था टेकी इंक्लाब बुलाणा, ओ कांशी! असां फिरि जेला जाणा।”
हिमाचल में पहाड़ी कविता का इतिहास यद्यपि पुराना है, यहां जिस पहाड़ी कविता की चर्चा की जा रही है, उसका जन्म सन् 1966 के बाद हुआ, जब प्रथम नवम्बर 1966 को पुराने हिमाचल में नये क्षेत्र शामिल हुए। वर्तमान पहाड़ी या हिमाचली कविता, मंच से उपजी कविता मानी जा सकती है। जैसा कि हर भाषा के साहित्य में माना जाता है, साहित्य का आरम्भ कविता से ही होता है। यहां भी प्रारम्भ में पहाड़ी में कविता ही लिखी गई। सरकारी प्रश्रय से इस का विकास हुआ, इसमें दोराय नहीं हो सकती। मंच और तुकबंदी से होती हुई छंद के प्रयोगों में गुजरती यह गजल तक पहुंची और परिपक्व होती गई। इस कविता ने कहीं-कहीं छंद को भी तोड़ा।
संपादित संकलन
संपादित संकलनों में बहुत से रचनाकारों को एकसाथ देखने का मौका मिलता है। पहाड़ी में अब तक कई संपादित संग्रह छप चुके हैं। भाषा संस्कृति विभाग के प्रारम्भिक प्रयासों में लगभग 1975 से पहले छपे ‘काव्य धारा’ के तीन संस्करणों के अलावा अकादमी द्वारा भी ऐसे संकलन निकाले गए। काव्य धारा शृंखला भाषा संस्कृति विभाग का एक सहज और सार्थक प्रयास था, यद्यपि यह शृंखला आगे नहीं बढ़ पाई। इसके तीन भाग प्रकाशित हुए। इसी तरह अकादमी द्वारा ‘मेहंदी’ तथा ‘फुल्लां रा गुलदस्ता’ (1996-97) नाम से काव्य संकलन सुदर्शन वशिष्ठ के संपादन में निकले।
यहां स्व० प्रेम भारद्वाज तथा डॉ० प्रत्यूष गुलेरी के संपादन में निकले काव्य संकलनों के माध्यम से पहाड़ी कविता का आकलन करने का प्रयास किया जाएगा।
काव्य संकलन ‘सीरां’
प्रेम भारद्वाज ने अस्वस्थ होने के बावजूद एन०बी०टी० के लिए एक काव्य संकलन ‘सीरां’ का संपादन किया। इस संपादित संकलन में पहाड़ी भवानी दत्त शास्त्री, लाल चंद प्रार्थी, सागर पालमपुरी, शबाब ललित, पीयूष गुलेरी, गौतम व्यथित और संसार चंद प्रभाकर जैसे आरम्भिक कवियों के साथ कुशल कटोच, कांता शर्मा, मुरारी शर्मा, ईशिता आर० गिरिश जैसे नये कवि भी शामिल हैं। इतनी पीढ़ियों के कवियों को एकसाथ प्रस्तुत करना इस संकलन की पहली विशेषता है। संकलन में कई धाराओं की कविताएं पढ़ने को मिलती हैं। शुद्ध शृंगारिक रचनाओं से लेकर गहन सामाजिक सरोकारों का स्वर भी दृष्टिगोचर होता है। पहाड़ी में तुकबंदी, छंदबद्ध, अतुकांत रचनाओं से लेकर पहाड़ी गजल तक को एक साथ देना इसकी तीसरी विशेषता है।
संग्रह में शामिल प्रारम्भिक दौर के पुराने और स्थापित कवियों में सर्वश्री भवानी दत्त शास्त्री, सागर पालमपुरी, लालचंद प्रार्थी, संसार चंद प्रभाकर, पीयूष गुलेरी, गौतम व्यथित, बी०आर० मुसाफिर, शबाब ललित, सुदर्शन कौशल नूरपुरी, शेष अवस्थी, मौलूराम ठाकुर, प्रत्यूष गुलेरी, शम्मी शर्मा, ओम प्रकाश प्रेमी, अश्विनी गर्ग आदि हैं। इसके बाद ओंकार फलक, रिखी भारद्वाज, कमलकांत शर्मा विद्रोही, केशव चन्द्र, प्रकाश चंद धीमान, पवनेन्द्र पवन, हरिकृष्ण मुरारी, रमेश चंद मस्ताना, मदन हिमाचली, नवीन हलदूनवी, देवराज संसालवी, शंकर लाल शर्मा, रजनी कांत, अमर पालशर आदि आते हैं। एकदम नई पीढ़ी में मुरारी शर्मा, अर्पणा धीमान, कांता शर्मा, ईशिता आर० गिरिश आदि हैं। पहाड़ी गज़ल में प्रार्थी, सुदर्शन कौशल, शबाब ललित (जो मूलतः शायर रहे हैं) आदि को छोड़ दें तो सागर पालमपुरी से आरम्भ होकर गौतम व्यथित, प्रेम भारद्वाज, द्विजेन्द्र द्विज, पवनेन्द्र पवन, नवनीत शर्मा के नाम जोड़े जा सकते हैं।
प्रस्तुत संकलन में भवानी दत्त शास्त्री (स्व०) ने जहां ‘हाखी री काणी’ व ‘धरती’ के माध्यम से कुछ सामाजिक सरोकारों की बात की, वहां सागर पालमपुरी ने ‘संझ ढलि’ में सांझ के विभिन्न चित्र व ‘प्हाड़ां दी राणी’ में पहाड़ के श्रम को भी दर्शाया। कौशल नूरपुरी एक समर्थ शायर रहे हैं तथापि यहां पहाड़ी गजलों में हिन्दी का पुट नज़र आता है। रूप शर्मा निर्दोष की कविताओं को व्यंग्य कविताएं कहना उचित होगा तो लाल चंद प्रार्थी (स्व०) की गजलों में हिमाचल की एकता का सपना देखा गया है। उनकी लोकप्रिय कविता ‘नार की कटार थिया’ भी शामिल की गई है। शबाब ललित की गजलें उनकी इस विधा में महारत का लोहा मनवाती हैं यदि वे मूल पहाड़ी में लिखी गई हैं। गौतम व्यथित ने गजल और लोक कविता (चंदा मामा लोरिया, दुधू भत कटोरिया) के माध्यम से बात कही है तो पीयूष गुलेरी ने कवित्त और चमुक्खे के माध्यम से मनोसंवेदना और पहाड़ी भाषा की बात की। परमानंद शर्मा ने भी गजल कह कर बड़ी बात कहने की कोशिश की है:
जिन्हां दे अंदर किच्छ नीं हुंदा,
उड़ी जांदे सै खिंद खंदोलू
तो बी०आर० मुसाफिर(स्व०) ने ‘पीड़ां रा पटारू’ द्वारा स्वाधीनता संग्राम की गाथा गायी है। पहाड़ी कविता में संसार चंद प्रभाकर (स्व०) के पास ठेठ मुहावरा था। ठेठ भाषा के प्रयोग में दो नाम गिनाएं जा सकते हैं: भगतराम मुसाफिर और संसार चंद प्रभाकर। भगत राम मुसाफिर(स्व०) की कविताएं इस संकलन में नहीं हैं। प्रभाकर ने भी कवित्त, गजल में समाज की बात कही है। ‘पुराणी बड़’ कविता में आधुनिक कविता का मुहावरा है जो वट वृक्ष के माध्यम से उजागर हुआ है। इसी तरह ओम प्रकाश प्रेमी (स्व०) ने भी ‘गलाणे बाहजी रही नी हुंदा’ के माध्यम से पहाड़ी मुहावरे में बात की है। शेष अवस्थी (स्व०) की प्रसिद्ध कविता ‘जे दिक्खा दा, सै लिक्खा दी’ संकलन की महत्त्वपूर्ण कविता है:
तैं कितणे फुल तोड़ी तोड़ी भुइयां सुट्टे!
कितणियां अणखिड़यां कलियां,
उंगली कनें मरोड़ी सटियां!
कितणियां की गुडरियां……
अश्विनी गर्ग ने पहाड़ी मुहावरे (आवा ऊत) से आपसी वैर विरोध (दिखे एह लोक) पर कलम चलाई। प्रत्यूष गुलेरी ने गज़ल और छंदबद्ध कविता (मौत, न्हेर नहीं देर ऐ) के माध्यम से कुछ सामाजिक बुराइयों को उजागर किया। मदन हिमाचली की कविता (सच्च क्यों नी बोलदा) में भी शेष अवस्थी का स्वर सुनाई देता है तो शंकर लाल शर्मा को भी लोगों के बदलने (केड़े बणीगे लोक) की चिंता है। देवराज संसालवी ने ‘कविए दी सहेली’ तथा ‘अखबार दे पन्ने’ द्वारा नई बात कहने की कोशिश की है।
महिला कवियों में रेखा डढवाल ने ‘नार’ और ‘कुड़ियां’ कविताओं से नारी मन की व्यथा कथा कही है। कांता शर्मा ने प्रकृति चित्रण (सौण आया, हियुं पया, व्यासा री पीड़) पर बल दिया तो रूपेश्वरी शर्मा ने भी रेखा की भान्ति नारी की पीड़ा पर बात कही। अर्पणा धीमान की एक कविता ‘गरीबिया गांह’ भी दहेज प्रथा पर है। निर्मला चंदेल की एक कविता ‘जनाने जाति रा दुख’ भी महिला चिंताओं पर है। महिला कवियों में सुदर्शन डोगरा का न होना खलता है। इन्हें हिमाचल अकादमी से पहाड़ी कविता के लिए वर्ष 1999 में पुरस्कार भी मिला है। पुराने कवियों में कमला वर्मा कमल को भी जोड़ा जा सकता था।
संकलन में नये कवियों को लिया जाना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन्हीं से आगे आशा की जा सकती है। शम्मी शर्मा, रजनी कांत, कमल कांत विद्रोही, नवीन हलदूनवी, बी०के० डोहरू, ज्ञान चंद पाधा, हरिकृष्ण मुरारी, अमर पालशर, कमलकांत विद्रोही, रमेश चंद मस्ताना आदि कवियों के साथ अशोक दर्द, मुरारी शर्मा, कांता शर्मा, रूपेश्वरी शर्मा, विधि सिंह दरिद्र, अमर तनौत्रा, कनौजिया, रविसिंह मंढोत्रा, हाकम सिप्पी, सुभाष सागर आदि नये कवियों का शामिल होना एक सुखद और लोकतांत्रिक प्रयास है।
पहाड़ी काव्य का समग्र और विविध रूप सामने लाने के लिए संपादक बधाई के पात्र हैं। कविताओं के चयन में भी सूझबूझ का परिचय देखने को मिलता है। कुछ कवियों की लोकप्रिय रचनाएं देकर चयन प्रक्रिया सुदृढ़ हुई है। कई बार रचनाकारों से कारणवश रचनाएं लेने में कठिनाई आती है। संभवतः इसी कारण से पहाड़ी आंदोलन के प्रारम्भिक कवियों में जयदेव किरण, जिन्हें पहाड़ी में प्रथम राज्य सम्मान(1989) प्राप्त हुआ, देसराज डोगरा, सी०आर० बी० ललित, भूपरंजन, भगत राम मुसाफिर, चन्द्रशेखर बेबस, काहन सिंह जमाल, नंदेश, प्रीतम आलमपुरी, वरयाम सिंह, ओमप्रकाश राही, सुदर्शन डोगरा, कमला वर्मा कमल, सरिता वैद्य, प्रिया शर्मा आदि इसमें शामिल नहीं हैं।
तथापि ‘सीरां’ एक महत्त्वपूर्ण संकलन है जिसमें कवि और कविता, दोनों का चयन सूझबूझ से किया गया है। यह पुस्तक निश्चित रूप से एक संदर्भ ग्रन्थ के रूप में उधृत की जाएगी। नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया भी बधाई का पात्र है जिसने ऐसी भाषा की कविता को प्रकाशित किया, जिसे अभी कहीं से भी मान्यता नहीं मिली है।
प्रतिनिधि हिमाचली काव्य संकलन
डॉ० प्रेम भारद्वाज(स्व०) के संपादन में प्रकाशित हिमाचली काव्य संकलन ‘सीरां’ के बाद सन् 2009 में डॉ० प्रत्यूष गुलेरी के संपादन में ‘प्रतिनिधि हिमाचली काव्य संकलन’ का साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण कार्य है जो हिमाचली कविता को समझने और परखने में विशिष्ट योगदान देता है। इस संकलन के कवियों को मुख्यतः तीन भागों में देखा जा सकता है: पहले तो वे जो केवल हिमाचली में ही लिख रहे हैं, या जिन्होंने अधिकांश हिमाचली में ही लिखा। दूसरे जो अन्य भाषाओं में लिखने के साथ हिमाचली में भी लिखते हैं। तीसरे, जो लिखते तो हिन्दी या अन्य भाषाओं में हैं, किन्तु उन्हें हिमाचली में लिखने से भी पहरेज नहीं। यानि संकलन में प्रारम्भिक दौर के पुराने कवियों से ले कर बिलकुल नए कवियों को भी शामिल किया गया है जिससे हिमाचली कविता का एक स्पष्ट चेहरा हमारे सामने दृष्टिगोचर होता है।
कवियों का क्रम भी लगभग उनकी लेखन में वरिष्ठता को देखते हुए दिया गया है। श्रीमती रानी विक्रम, रूद्र दत्त, बाबा कांशीराम ऐतिहासिक कवियों में गिनाए जा सकते हैं। सोमनाथ सिंह सोम, चन्द्रशेखर बेबस, रूपसिंह फूल और लाल चंद प्रार्थी से ले कर भवानी दत्त शास्त्री, संसार चंद प्रभाकर और जयदेव किरण से होते हुए मुरारी शर्मा, आत्माराम रंजन और अदिती गुलेरी जैसे एकदम नये कवि भी संकलन में शामिल हैं जिससे हिमाचल कविता की यात्रा का एक पूरा इतिहास सामने आता है।
हिमाचली में गजल परंपरा का आरम्भ लाल चंद प्रार्थी से माना जा सकता है। प्रार्थी जी उर्दू में भी लिखते रहे हैं। हालांकि संकलन में उनकी प्रसिद्ध और लोकप्रिय कविता ‘नार कि कटार थिया’ दी गई है। रूपसिंह फूल ने भी गजल में प्रयोग किया। सागर पालमपुरी की गजल ‘तूंता फुल्लां चुणदी आई मैं म्हेसा कण्डे बीणे’ जैसे बंदों के साथ समृद्ध हुई है तो कौशल नूरपुरी ने जीवन को बहता पानी कहा:
मैं तां जीणा इह्यां ई कौशल, जिह्यां बगदा बगदा पाणी।
ओमप्रकाश प्रेमी ने अपनी गजल में वियोग का सहारा लिया है तो शेष अवस्थी ने भी एक विरहणी का चित्रण किया है जो अपने नौकरी पर गए पति की प्रतीक्षा करती है:
मेरा सून्ना अंगण दुआर, इक बारी घरै आई जा।
बृजमोहन कौशल की गजलें पूरे वजन के साथ बात करती हैं:
मेरे दोस्तां ने मने दी कराणी, लगाणी बुझाणी, बुझाणी लगाणी।
तो चंद्रमणि वशिष्ठ ने विरह का वर्णन किया है:
जग होटे निहाली निहाली रो, मन मंदरो दे दीवे बाली बाली रो।
शबाब ललित, जो उर्दू के शायर हैं, ने अपने शायराना अंदाज में ही सच्ची बात कही है:
झूठे जो तां लहरां बहरां, सच्चे जो लग्गी जांदी फांसी।
प्रीतम चंद प्रीतम और ईश्वर दुखिया ने शृंगार के विभिन्न प्रयोग अपनी ग़ज़लों में किए हैं। पवनेन्द्र पवन की गज़लों में एक तीखापन दिखाई देता है:
भुख्यां दे मुलखे तमासा नी होणा, कितना कि बंदर नचाई ने दिखणा।
फटि बी ऐ सकदा ‘पवन’ ख्याल रखणा, बड़ा फूकणू नीं फुलाई ने दिखणा।
प्रेम भारद्वाज(स्व०) की गजलों में ठेठ भाषा का मुहावरा देखने को मिलता है जो उनकी मूल भाषा पर पकड़ का परिचायक है:
रूचियां बाजी मिट्टे मधरे रति बी नक्कै नी चढ़दे
प्रेम नि ऐ तां फिक्के फोके किस्से मौज बहारां दे।
वरिष्ठ कवि सी०आर०बी० ललित तथा परमानंद शर्मा के अलावा कंवर करतार, दीपक कुमार वर्मा, रजनीकांत, मुरारी शर्मा ने भी ग़ज़ल में अपनी बात कहने का प्रयास किया है। मुरारी शर्मा ने अपनी गजलों में गहरी बात की है:
से बदला हुण रंग मौसमा सांही, आदमी डुग्गहा था कहूदी समुंद्रां सांही।
पुराने कवियों में स्व० चन्द्रशेखर बेबस ने ‘जूगनू’ के प्रतीक बना कर समसामयिक मुद्दों को छुआ है तो स्व० देसराज डोगरा ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘चाचू गिरधारी’ द्वारा गांव के एक सीधे सादे आदमी का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। भगतराम मुसाफिर (स्व०) भी ठेठ पहाड़ी मुहावरे के कवि माने जाते रहे हैं, यहां उनकी कविताएं देश प्रेम और समाज सुधार से सम्बन्धित हैं। हरिप्रसाद सुमन और खेमराज गुप्त भी देश प्रेम तथा देश भक्ति की बात कर रहे हैं। उसी समय के स्व० बलदेव सिंह ठाकुर ने पहाड़ी मुहावरे को पकड़ कर मुक्त छंद में बात की है:
एह सड़क – जिसा तू चल्लेया, नित नौएंआ सुपनेयां पाई घर नैह्ड़ै होर नैह्ड़ै ओआ दा
इसी पीढ़ी के कवियों में स्व० भवानी दत्त शास्त्री ने ‘नालू’, शीतल निर्झर और कलाकार पर तथा स्व० बख्शी राम मुसाफिर ने हिमाचल पर काव्य रचना की है, यद्यपि ‘प्रधान’ पर इनकी कविता व्यंग्य की तीखी धार लिए हुए है। शम्मी शर्मा, कृष्ण कुमार नूतन, अमर सिंह रणपतिया, सोहन लाल गुप्त, ओंकार लाल भारद्वाज (स्व०) भी पुरानी पीढ़ी के कवि हैं जिनकी कविताएं प्रदेश प्रेम, समाज सुधार और समाज के आडंबरों पर हैं। स्व० संसार चंद प्रभाकर भी ठेठ मुहावरे के हिमाचली के समर्पित कवि थे। संकलन में उनकी ‘किरसान’ और ‘छप्पर’ कविताएं स्थानीय मुहावरे के साथ किसान और गांव के घर का मार्मिक दस्तावेज हैं। पुरानी पीढ़ी के कवियों के अन्य कवियों में एम० आर० ठाकुर, कमला वर्मा कमल, उदय प्रकाश हिमाणू, विद्यानंद सरैक, सुखदेव शास्त्री जैसे कवियों को संकलन में डाल कर हिमाचली कवियों की सूची में वृद्धि की गई है। हिमाचली के पुरोधा कवियों में, जो संकलन के संपादन तक लिख रहे थे, सर्वश्री जयदेव किरण, पीयूष गुलेरी, गौतम व्यथित, अश्विनी गर्ग, प्रत्यूष गुलेरी, नरेन्द्र अरुण, सुदर्शन डोगरा शामिल हैं। (हालांकि पीयूष गुलेरी, नरेंद्र अरुण, सुदर्शन डोगरा अब हमारे बीच नहीं हैं) जयदेव किरण के कुछ लोकप्रिय गीतों या कविताओं के स्थान पर यहां दो मुक्त छंद की विचार कविताएं ‘झूठ’ और ‘दुज्जे रा दोष’ दी गई हैं। गौतम व्यथित की एक गजल और एक कविता दी है जो देश में भ्रष्टाचार, आतंक जैसे मुद्दों के प्रति सचेत करती है:
घरे जो बाहर ते दुस्मणा बैरियां रा, भौ उतड़ा नी हुंदा जितड़ा घरे रे भेतियां कलहां कलत्ते रा।
प्रत्यूष गुलेरी ने भी अपनी एक गजल तथा लोक मुहावरे पर आधारित कविता ‘हरगंगे भेई हरगंगे’ दी है जिसमें आज के कुसमय पर चोट है:
भूता दे मसटंडे एत्थू, खरेयां जो पेई जांदे डंडे
नएं तिह्नां दैं लगदे दंगे, हरगंगे! भई हरगंगे।
नरेंद्र अरुण ने ‘कुज्जी रे फुल्ल’ कविता के माध्यम से गांव में खिलने वाले कुज्जी के फूल, उसकी मोहक खुशबू और उपयोगिता का स्मरण किया है तो अश्विनी गर्ग ने ‘चांदी दी लाड़ी’ द्वारा अपनी धरती की महिमा का गान किया है। सुदर्शन डोगरा ने कार्यालयी जीवन पर छींटाकशी की है। अपनी कविता ‘रूले री पुकार’ में वे लिखती हैं: “मैं रूल (नियम) हां, मेरा नास मत पुट्टा मिजो खरे करी पढ़ा, समझा, फिरि लागू करा।”
संकलन में कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो मूलतः हिन्दी में लिखते हैं। इन में सुदर्शन वशिष्ठ, दिनेश धर्मपाल, के० आर० भारती, चंद्ररेखा डढ़वाल, हरिप्रिया शामिल हैं। सुदर्शन वशिष्ठ ने ‘परिंदे’ और ‘बद्दल’ कविताओं से प्रकृति को उकेरा है तो दिनेश धर्मपाल ने ‘बाजार’ को मिटाने की कामना की है। के० आर० भारती ने ‘बद्दल’ में प्रकृति चित्रण तो ‘शराब’ में नशाखोरी पर चोट की है। हरिप्रिया की कविताओं में नारी मन की संवेदना है जबकि रेखा ने आधुनिक सोच को कविता में ढाला है: “भीड़ छुआलदी पत्थर / कनैं खूना खून बी / भीड़ ई होंदी।” रमेश चंद मस्ताना ने ‘दोहे’ के प्रयोग से और कुशल कटोच ने ‘खिंद (गूदड़ी)’ के प्रतीक से अपनी बात कही है।
संकलन में कुछ नये कवियों को स्थान दे कर हिमाचली में आगे की पीढ़ी के प्रति भी एक आशावादी दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। दीपक डोगरा ने सरकारी अध्यापक पर व्यंग्य कसा है तो ईशिता ने ‘प्हाड़े री बेटड़ी’ से पहाड़ की औरत का दर्द बयान किया है: “धारा पौरे बसदी / आमां रा गीत / बौत कनारे बेशिये ताशा खेलदा / घौरा आला तेसरा।” अदिती गुलेरी ने नई संवेदना की आधुनिक कविता में बात रखी है तो आत्मा रंजन ने ‘खुशी’ और ‘सपना’ जैसे विषयों पर क्षणिकाएं प्रस्तुत की हैं।
हिमाचली कविता पर पुराने ढर्रे की तुकबंदी या पुराने छंदों का बरबस प्रयोग, केवल हिमाचल का गुणगान या प्रकृति चित्रण और सामाजिक सरोकारों व चेतना से दूरी जैसे आरोप लगते रहे हैं। प्रस्तुत संकलन इन आरोपों का बहुत हद तक खण्डन करता है और हिमाचली काव्य के प्रति आश्वस्त करता है। संकलन में ऐतिहासिक और प्रारम्भिक कवियों से लेकर एकदम नये कवियों के साथ चौरानवें कवियों की एक साथ उपस्थिति इसे एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में स्थापित करती है जो इस विधा में शोध करने वालों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। अंत में कवियों के परिचय देने से इतिहास लेखन में भी सुविधा रहेगी। अतः यह संकलन हिमाचली भाषा को, जो अभी पहचान पाने की राह में है, स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा विश्वास है। साहित्य अकादमी ने एक ऐसी भाषा की कविताओं का संकलन प्रकाशित कर खुलेपन का परिचय दिया है, जो उसकी अनुसूची में अभी शामिल नहीं है, इसके लिए अकादमी बधाई की पात्र है।
पहाड़ी गज़ल
पहाड़ी कविता में आधुनिक मुहावरे या आधुनिक तकनीक की कमी को पहाड़ी गज़ल पूरा करती है। इस विधा में अनेक सम्भावना नज़र आती हैं क्योंकि अभी भी रचनाकार इस विधा में लिख रहे हैं। जब सरकार द्वारा इस भाषा के उत्थान के लिए सार्थक प्रयास किए गए, कविता ही एक मात्र ऐसा माध्यम था, जो एकदम सामने आया। ऐसे दौर में बहुत बार एक तरह से तुकबंदी की गई। फिर प्रदेश प्रशस्ति और शृंगारिक रचनाओं की बाढ़ आई। शैली में भी पुरातन कवित सवैयों का सहारा लिया गया। इस सबके बावजूद एक बार ठेठ पहाड़ी मुहावरा छिपा न रह सका। ग़ज़ल को माध्यम बना कर सशक्त कविता की गई।
पहाड़ी गजल में लाल चंद प्रार्थी, सुदर्शन कौशल, शबाब ललित (जो मूलतः शायर रहे हैं) आदि को छोड़ दें तो सागर पालमपुरी से आरम्भ हो कर गौतम व्यथित, पीयूष गुलेरी, प्रत्यूष गुलेरी, संसार चंद प्रभाकर, प्रीतम आलमपुरी ने इस विधा में लिखने का सफल प्रयास किया है। गजल में लिखने वालों में डॉ० प्रेम भारद्वाज(स्व०) एक सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। डॉ० प्रेम भारद्वाज पहाड़ी ग़ज़ल के पुरोधा रहे हैं। उन्हें हिमाचल सरकार द्वारा पहाड़ी में ही उनके संग्रह ‘मौसम खराब है’ को 1999 में ‘राज्य सम्मान’ मिला। इसी संग्रह पर 1993 में अकादमी पुरस्कार भी मिला। प्रेम भारद्वाज की ‘कुत्ता’, ‘कालियां थियां ठगां ते बोरियां’ तथा ‘भेडू’ गजलें हैं जो पहाड़ी के ठेठ प्रयोग के साथ गजल विधा के नियम निभाते हुए सामने आती हैं। परमानंद शर्मा, सी० आर० बी० ललित, कंवर करतार, द्विजेन्द्र द्विज, पवनेन्द्र पवन, रजनीकांत, मुरारी शर्मा, नवनीत शर्मा के बाद विनोद कुमार भावुक के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रेम भारद्वाज की गजलों में ठेठ पहाड़ी मुहावरे का जमकर प्रयोग हुआ है जिसका अनुसरण अब विनोद कुमार भावुक भी कर रहे हैं।
अन्य विधाएं
पहाड़ी में कहानी उपन्यास आदि विधाओं का अभाव होते हुए भी रविसिंह मंढोत्रा (स्व०) का उपन्यास ‘जौंढा” जिसे वर्ष 2004-2006 का अकादमी सम्मान भी मिला, आश्वस्त करता है। मंढोत्राजी हालांकि मूलतः मंडी से थे किंतु पालमपुर में रहने के कारण यह उपन्यास ठेठ कांगड़ी में लिखा गया है। कांगड़ा के सैनिक जीवन, जातिवाद की समस्यों पर आधारित गद्य विधा में एक मानक स्थापित करता है।
इसी तरह कमल हमीरपुरी का कथा संकलन ‘आम्बल़ी दा बूट्टा’ (2017) जिसमें चौदह ठेठ कहानियां है, पहाड़ी कहानी में मील पत्थर है। ‘आम्बल़ी दा बूट्टा’, ‘टोबा’, ‘रीझू पटुआरी’, ‘खड़पंच’, ‘पितलू दा हुक्का’ ठेठ ग्राम्य जीवन की कथाएं हैं।
व्यंग्य में डॉ० आत्माराम की ‘चुंगां ते ठोहलू’ तथा डॉ० प्रत्यूष गुलेरी का निबंध व्यंग्य संग्रह ‘नुहारा री पच्छाण’ एक अलग विधा में प्रयोग को दर्शाते हैं।
कहानी लेखन में देसराज डोगरा, शेष अवस्थी, ओमप्रकाश सारस्वत, गौतम व्यथित, प्रत्यूष गुलेरी, एम० कुसुम मटौरवी, केहर सिंह मित्र, कृष्णचंद महादेविया, तारा नेगी, प्रभात शर्मा प्रभात, रमेश चंद मस्ताना, त्रिलोक मेहरा ने हाथ आजमाया है। अकादमी द्वारा ‘सीरली भ्याग’ नाम पहाड़ी कहानी संकलन भी निकाला गया।
नाटक विधा में नरेन्द्र अरूण और अश्विनी गर्ग ने पहाड़ी में नाटक लिख कर इस विधा को समृद्ध किया है। पहाड़ी में रेडियो नाटकों का भी योगदान रहा।
प्रो० नारायण चंद पराशर द्वारा ‘हिमधारा’ नाम से पहाड़ी में पत्रिका निकाली जाती रही जिसके द्वारा पं० भवानी दत्त शास्त्री को ‘साहित्य चूड़ामणि’ सम्मान भी दिया गया। मण्डी से प्रकाश धीमान ने पहाड़ी में ‘बागर’ पत्रिका का संपादन किया। कुलभूषण कायस्थ को पहाड़ी कहानी-उपन्यास वर्ग में, रूप शर्मा को भी इसी वर्ग में वर्ष 1983 में अकादमी सम्मान दिए गए। सर्वश्री खुशीराम शर्मा तथा गौतम व्यथित को ‘लोककथा’ विधा में 1983 में अकादमी सम्मान मिले। इसी वर्ष मे सर्वश्री नरेंद्र अरुण तथा भगत राम मुसाफिर को पहाड़ी कविता के लिए सम्मान मिला। डॉ० पीयूष गुलेरी के ‘छौंटे’ काव्य संकलन को 1983 में, ‘उछटी मारनी डिया’ डॉ० वरयाम सिंह के काव्य संकलन को 1983 में, डॉ० बलदेव सिंह के काव्य संकलन ‘हवा दक्खणी’ को 1985 में, अश्विनी गर्ग के पहाड़ी एकांकी ‘श्यावली’ को 1987 में, जयदेव किरण के ‘अजाद देशा रे पंछी’ काव्य संकलन को 1989 में, नरेन्द्र अरुण के पहाड़ी काव्य ‘कुज्जी रे फुल्ल’ को 1990 में, डॉ० प्रेम भारद्वाज के पहाड़ी काव्य संकलन ‘मौसम खराब है’ को 1993 में, सुदर्शन डोगरा के काव्य संकलन ‘सूरजेरी पहली किरण’ को 1999 में, भगवान देव चौतन्य के काव्य संकलन ‘उच्ची धारा री धूप्पा’ को 2004 में, रवि सिंह मंढोत्रा के उपन्यास ‘जोंढा’ को 2007 में अकादमी के साहित्य परस्कार प्राप्त हुए।
अकादमी द्वारा 25 अक्तूबर 2019 को घोषित पुरस्कारों में पहाड़ी काव्य विधा में ‘अक्खर अक्खर जूग’ के लिए रेखा डढवाल को 2015-17 के लिए सम्मान घोषित किए गए हैं। हाल ही में आई पहाड़ी पुस्तकों में नवीन हलदूणवी 2016 में छपे काव्य संकलन ‘म्हौल बगाड़ित्ता’ के बाद 2018 में ‘कुड़मा दे नखरे’, वंदना राणा का ‘मां बगैर’ काव्य संकलन 2016 में, आशा शैली का ‘हण मैं लिक्खा करनी’ काव्य सकलन 2017 में, भगत राम मंडोत्रा का काव्य संकलन ‘रिहडू खोलू’ 2017 में, हरिप्रिया का काव्य संकलन ‘यादा रा हियुं’ 2017 में और विनोद कुमार भावुक का काव्य संकलन ‘ट्टेरिया गल्लां गाजल़बेल’ 2017 में आया है।
इससे स्पष्ट है कि पुस्तकें निरंतर छप रही हैं। तमाम गतिरोधों के बावजूद पहाड़ी में इस समय बहुत से प्रकाशन आ चुके हैं और लेखन भी जारी है।
लोक साहित्य
सृजनात्मक साहित्य के साथ यदि लोक साहित्य की बात न की जाए तो पहाड़ी की चर्चा अधूरी रह जाएगी। लोक साहित्य सर्वप्रथम देवराज शर्मा की हिमाचल प्रदेश पर पुस्तक के साथ डॉ० बंशीराम शर्मा की ‘किन्नर लोक साहित्य’ उल्लेखनीय शोध है। खुशीराम गौतम की ‘सिरमौरी लोक साहित्य’, लाल चंद प्रार्थी की ‘कुल्लूत देश की कहानी’, सुदर्शन वशिष्ठ की हिमालय गाथा श्रृंखला के अर्न्तगत ‘लोकवार्ता’ तथा ‘समाज संस्कृति’, बी० आर० भारद्वाज की ‘गुग्गा गाथा’, नरेन्द्र अरुण व विद्याचंद चंद ठाकुर की चंबा पर पुस्तक, गौतम व्यथित की ‘कांगड़ा के लोकगीत’, अमर सिंह रणपतिया का चंबा व गादी बोली पर कार्य, कैलाश आहलूवालिया की ‘करियाला’ आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं। विद्यासागर नेगी की पुस्तक को हाल ही में अकादमी पुरस्कार घोषित हुआ है।
संस्कृति के अलावा लोक साहित्य पर हिमाचल अकादमी द्वारा कई महत्त्वपूर्ण प्रकाशन निकाले गए हैं। ‘पहाड़ी-हिन्दी शब्दकोष’ के अतिरिक्त ‘भतृहरि लोक गाथा’, ‘हिमाचल प्रदेश के घटना और श्रमप्रधान गीत’, ‘सीरली भ्याग’ (पहाड़ी कहानी), ‘रंग बखरे बखरे’ (पहाड़ी नाटक), ‘मेंहदी’ (पहाड़ी काव्य), ‘मिंजरां’ (पहाड़ी नाटक), ‘फुल्लां रा गुलदस्ता’ (कविता), आदि उल्लेखनीय हैं। लोक साहित्य में लोकगीत, गाथा व अन्य विधाओं पर अनेक विद्वानों ने कार्य किया और प्रकाशन भी आए। अरण्य गायकी ‘लामण’ पर पुस्तक के अलावा एम०आर० ठाकुर की बहुचर्चित पुस्तक ‘पहाड़ी भाषा: कुल्लूवी के विशेष संदर्भ में’ ऐसे समय में आई जब प्रदेश तो क्या पूरे उत्तर भारत में भाषा विज्ञान का कोई जानकार न था। उस समय इस पुस्तक को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा पुरस्कृत किया गया।
अकादमी में हरिचंद पराशर तथा ठाकुर जी के समय में भाषा विभाग तथा अकादमी द्वारा पहाड़ी में महत्त्वपूर्ण प्रकाशन निकाले गए। विभाग द्वारा ‘काव्य धारा’ (तीन भागों में), ‘शोध पत्रावली’ (तीन भागों में), ‘पहाड़ी भाषा और उसका साहित्य’, ‘सोलासिंगी’ तथा अकादमी द्वारा ‘पहाड़ी रचना सार’, ‘कथा सरवरी’ (दो भागों में), ‘माला रे मणके’ (पहाड़ी काव्य), ‘छनाट’ (नाटक) जैसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन निकाले गए। इनके पहाड़ी के प्रति प्रयासों के प्रतिफल में 1996 में अकादमी दिल्ली द्वारा दिए जाने वाले ‘प्रथम भाषा सम्मान’ में इनका नाम शामिल हुआ। ‘लामण’ के अलावा भाषा विज्ञान पर इनकी एक ओर महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘हिमाचली’ नाम से है जो 2012 में साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित हुई। साहित्य अकादमी ने इसे ‘सहभाषा श्रृंखला’ के अन्तर्गत छापा।
हरिराम जस्टा, डॉ० विद्याचंद ठाकुर, विद्यानंद सरैक, किशोरी लाल वैद्य, केशवानंद आदि कुछ अन्य विद्वान हैं जिन्होंने लोकसाहित्य को समृद्ध किया। हाल ही में विद्या सागर नेगी को अकादमी द्वारा 25 अक्तूबर 2019 को जारी विज्ञप्ति द्वारा ‘एक हिमालयी चरवाहे की आध्यात्मिक यात्रा’ के लिए वर्ष 2015-17 में छपी पुस्तकों के लिए सम्मान घोषित किया गया है।
वर्तनी एवं मानकीकरण
इतने वर्ष बीत जाने पर भी पहाड़ी का मानकीकरण नहीं हो पाया। सभी अपने क्षेत्र की भाषा में अपने-अपने ढंग से लिख रहे हैं। एक क्षेत्र के शब्दों में भी एकरूपता नहीं बन पाई है। उसी क्षेत्र का एक लेखक अपने ढंग से लिखता है तो दूसरा अपने ढंग से। यहां पहाड़ी में वर्तनी की बात करना भी उपयुक्त रहेगा। वर्तनी का मानकीकरण नहीं हो पाया है। एक ही शब्द को, एक ही क्षेत्र में, कई तरह से लिखा जा रहा है। प्रो० नारायण चंद पराशर ने मण्डयाली को आधार बना कर ‘दा-दे-दी’ की जगह ‘रा-रे-री’ लगा कर तथा कुछ मण्डयाली शब्दों को चुन कर लिखने की कोशिश की किंतु यह उन्हीं तक सीमित रहा। कुछेक ने आंशिक रूप से स्वीकारा भी, अधिकांश ने नकार दिया।
मूल्यांकन, सफलता और सार्वभौमिक बदलाव
पहाड़ी साहित्य के मूल्यांकन की बात करें तो किसी भी भाषा को मान्यता देना उसमें सृजित साहित्य पर भी निर्भर करता है। जो मुहिम स्व० लालचंद प्रार्थी के समय चली, जो स्व० नारायण चंद पराशर के समय पल्लवित हुई, वह धीरे-धीरे मंद और कुंद होती गई। संरक्षण की कमी से लेखक पहाड़ी से विमुख होते गए।
एक समय ऐसा भी आया जब ‘साप्ताहिक गिरिराज’ में पहाड़ी के चार पृष्ठ निकाले जाने लगे। कुछ अखबारों जैसे जागरण में पहाड़ी की कविताएं दी जाने लगीं। सरकारी आमंत्रण कार्ड हिंदी और पहाड़ी में छापे जाने लगे। दीवारों पर सरकारी नारे और शिक्षाप्रद शब्द भी पहाड़ी में लिखे जाने लगे। अकादमी द्वारा पहाड़ी पत्रिका ‘हिमभारती’ तो छप ही रही थी।
एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भाषा को मान्यता देना राज्य सरकार नहीं, केन्द्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है। केन्द्र के निर्देश पर पूरे देश की विधानसभाएं किसी भी भाषा को मान्यता देने के लिए बाध्य होती हैं। इसके लिए साहित्य होने या न होने की कोई शर्त नहीं है। यह केवल राजनैतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर है। कुछ वर्ष पहले नेपाली को मान्यता दी गई तो किसी ने नहीं पूछा कि नेपाली में कितना साहित्य लिखा गया है। प्रारम्भिक दौर में बिना कोई आन्दोलन किए स्वतः भाषाओं को मान्यता दे दी गई और संविधान की आठवीं अनुसूची में डाल दिया गया। जो भाषाएं रह गई उनके लिए बाद में यह कार्य कठिन हो गया। इस समय देश के संविधान की अनुसूची में बाईस भाषाएं हैं। साहित्य अकादमी द्वारा कुछ आगे बढ़ कर चौबीस भाषाओं को मान्यता दी गई है। किंतु साहित्य अकादमी ने कुछ ऐसी भाषाओं को भी परोक्ष रूप से मान्यता दी है जो अनुसूची में शामिल नहीं हैं। इन भाषाओं में ‘भाषा सम्मान’ की स्थापना की गई है जिसकी राशि पहले पचास हजार रुपये थी जो अब एक लाख रुपये कर दी गई है। इस योजना में हिमाचल की पहाड़ी या हिमाचली भी शामिल की गई है जो प्रदेश की सरकार व अकादमी के प्रयासों का प्रतिफल है।
यह वर्ष 1996 की बात है जब अकादमी के अध्यक्ष प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार अनंतमूर्ति थे। उस समय हिमाचल अकादमी की ओर स पहाड़ी को मान्यता देने की बात चली। अकादमी के तत्कालीन उपाध्यक्ष एवं शिक्षा मन्त्री नारायण चंद पराशर के प्रश्रय में प्रयास किए। अकादमी के सचिव के नाते पहाड़ी में प्रकाशित साहित्य की सूचियां ले कर मुझे भी साहित्य अकादमी में जाने और अपना पक्ष रखने का अवसर मिला। पराशर जी के निर्देश पर प्रो० अनंतमूर्ति को अकादमी द्वारा शिमला आमंत्रित किया। हिमाचल भवन दिल्ली में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों की भेंट तत्कालीन मुख्यमंत्री से करवाई गई। इन सारे प्रयासों के फलस्वरूप 1996 में अकादेमी द्वारा दिए जाने वाले प्रथम भाषा सम्मानों में हिमाचली साहित्यकारों के नाम शामिल हुए। अकादमी के तत्कालीन सदस्य पद्मचंद्र कश्यप और अकादमी सचिव के नाते मैं भी उस चयन समिति का सदस्य बना जिसमें सर्वश्री वंशीराम शर्मा और एम०आर० ठाकुर को प्रथम भाषा सम्मान के लिए चयनित किया गया और इन्हें दिल्ली में 27 अगस्त 1997 को यह सम्मान दिया गया। पहली बार दिए जाने वाले इन सम्मानों में एक भाषा तुडू थी जो कर्नाटक की एक उप-भाषा है और दूसरी पहाड़ी थी। सौभाग्यवश दूसरे भाषा सम्मान की चयन समिति में भी मैं एम० आर० ठाकुर और सी०आर०बी० ललित के साथ साहित्य अकादेमी के सदस्य के नाते सदस्य रहा जिसमें सर्वश्री गौतम व्यथित और प्रत्यूष गुलेरी का चयन हुआ। वर्ष 2007 का यह पुरस्कार हॉलीडे होम शिमला में 2 जुलाई 2011 को अकादमी के उस समय नवनिर्वाचित उपाध्यक्ष (अब अध्यक्ष) विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा प्रदान किया गया।
इस बीच साहित्य अकादमी तथा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा कुछ पुस्तकें पहाड़ी में प्रकाशित की गईं। अकादमी से पहाड़ी में ‘हिमभारती’ बहुत पहले से छप रही है, मंडी से प्रकाशवंद धीमान द्वारा ‘बागर’ का प्रकाशन भी होता रहा। गिरिराज में तो शायद 1996 से ही पहाड़ी में पृष्ठ छपने शुरू हो गए थे, दैनिक जागरण में भी पहाड़ी को स्थान दिया जाने लगा। यह भी सत्य है कि प्रकाशन के लिए रचनाओं का हमेशा अभाव रहा।
यह माना जाता है कि विश्व में 6000 से अधिक भाषाएं हैं तो भारत में 600 के लगभग भाषाएं गिनाई गई हैं। भाषा से अभिप्राय भाषा और बोली, दोनों से हैं। भाषा विज्ञानियों के अनुसार किसी भी भाषा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसका कोई साहित्य हो। जो भाषा अपने भाव व्यक्त करने में सक्षम है, संप्रेषणीय है, वह एक पूर्ण भाषा है, बोली नहीं। आज पूरे विश्व में बहुत सी भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। ग्लोबलाइजेशन के कारण जिंदा रहने वाली भाषाओं में चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी और हिंदी, ये पांच भाषाएं हैं। यह हर्ष की बात है कि हिंदी भी जिंदा भाषाओं में शामिल है। यूनेस्को के सर्वेक्षण के अनुसार बहुत सी भाषाएं समाप्त हो जाएंगी या समाप्ति के कगार पर हैं, इनकी संख्या भारतवर्ष में अधिक है। पंजाबी भाषा, जो इतने बड़े क्षेत्र की एक समृद्ध भाषा है, भी समाप्ति के खतरे की सूची में है। कुछ भाषाएं तो समाप्त हो ही गई हैं। इनमें अंडमान, आसाम, मेघालय, केरल तथा मध्यप्रदेश के जनजाति भाषाएं गिनाई गई हैं। पिछले दिनों अंडमान में एक भाषा बोलने वाला अंतिम व्यक्ति समाप्त हो गया।
इन भाषाओं के लुप्त होने के दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि इन्हें बोलने वाले ही समाप्त हो गए। सन् 2007 तक अंडमान में एक भाषा को बोलने वालों की संख्या मात्र दस थी तो आसाम में एक भाषा के ज्ञाता पचास लोग थे। दूसरा यह कि कुछ भाषाओं को बड़ी भाषाओं, जैसे हिन्दी, अंग्रेजी ने लील लिया। अपनी मातृ भाषाओं से लोग हिन्दी या अंग्रेजी की ओर चले गये। तथापि अपनी बोली या भाषा को सुरक्षित रखना एक पुनीत कार्य है अन्यथा कुछ ही समय में हम इस अमूल्य निधि को खो बैठेंगे। अपनी भाषा के शब्द सम्पूर्ण संस्कृति और पूरे सांस्कृतिक परिवेश को वहन करते हैं, इसमें दो राय नहीं हो सकती।
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