हिमाचल कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका सोमसी के जनवरी-1979 अंक में छपा डॉ० बलदेव कुमार ठाकुर द्वारा एक आलेख।


पहाड़ी भाषा और उस के साहित्य पर लिखने के लिए ज्यों ही साहस किया जाता है, तभी क्षण भर के लिए लेखनी रुक सी जाती है। कारण, पहाड़ी भाषा के कुछ आलोचकों की यह धारणा सहसा सामने आ जाती है कि जब ‘पहाड़ी भाषा और उस का साहित्य कोई है ही नहीं तो उस पर लिखना ही क्या है।’ परन्तु पुनः विचार करने पर दूसरे ही क्षण यह आलोचना निराधार और फीकी पड़ने लगती है। पिछले एक दशक के अंदर पहाड़ी भाषा में और पहाड़ी भाषा के बारे में इतना लिखा जा चुका है कि इससे न केवल पहाड़ी के आलोचकों को सुरक्षित उत्तर मिल चुका है वरन् इस बात की भी आवश्यकता अनुभव हो रही है कि जो कुछ लिखा गया है या लिखा जा रहा है उस पर गहन विचार किया जाए ताकि पहाड़ी के विकास के लिए सही दिशा मिल सके।

ऐसी स्थिति में पहाड़ी भाषा के साहित्य पर इस समय समीक्षा करना बहुत महत्वपूर्ण विषय है और इस के अनेक लाभ संभावित हैं। अब तक पहाड़ी भाषा में जो कुछ लिखा गया है वह विभिन्न स्थानों पर बिखरा पड़ा है। चूंकि पहाड़ी में साहित्य को पढ़ने की रुचि अभी विकसित नहीं हुई है, अतः जो कुछ लिखा गया है उसे लोक-पुस्तकालयों में स्थान नहीं मिला है। अतः जो कुछ लिखा गया है या लिखा जा रहा है उनका संकलित लेखा-जोखा अनिवार्य है अन्यथा यह सब कुछ शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। कम से कम यदि इन का विवरणात्मक सार भी सुरक्षित रखा जा सके तो भी भविष्य के लिए अमूल्य निधि प्रदान करेंगे। पहाड़ी के लेखक विभिन्न स्थानों पर बैठे प्रायः आत्म संतुष्टि के लिए लख रहे हैं। उन के लिए कोई मार्ग दर्शन नहीं है। समय-समय की समीक्षा द्वारा पहाड़ी भाषा के उभरते साहित्य को उचित दिशा मिल जाएगी। साथ ही साथ नये लेखकों के लिए संदर्शन भी प्राप्त होगा। 

कुलुई लिखित साहित्य

कुलुई से अभिप्राय पहाड़ी भाषा की उस बोली से है जिस का सामान्य क्षेत्र कुलू जिला है। कुलुई विशेष, भीतरी सिराजी और बाह्य सिराजी इस के तीन रूप हैं, या इन्हें कुलुई के अंतर्गत तीन उपबोलियाँ कहा जा सकता है। लोक साहित्य की दृष्टी से जहाँ तीनों उप-बोलियाँ बड़ी समृद्ध हैं, वहाँ लिखित साहित्य की दिशा में कुलुई विशेष में अधिक रचनाएं मिलती हैं, जब कि अन्य दो उप-बोलियों में लिखित रूप कम ही देखने को मिलता है।

यों तो पहाड़ी में लिखने का क्रम पिछले एक दशक में मूलतः सुचारू रूप से चला है, और समीक्षा भी इसी अवधि की रचनाओं पर प्रमुखतः आधारित रहेगी; परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इस (पहाड़ी) में इस से पूर्व किसी साहित्य की रचना नहीं हुई है। मि० एच० ए० रोज़ ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्लॉसरी आफ दि ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ दि पंजाब एण्ड नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस’ के पृष्ठ 9 पर कुल्लू का विशेष हवाला देते हुये लिखा है कि “कुल्लू के बारे में यह कहना उचित न होगा कि वहाँ कोई साहित्य नहीं लिखा गया है। अवश्य ही साहित्य की रचना हुई होगी।” कुल्लू क्षेत्र आदि काल से ऋषि-मुनियों और देवताओ की भूमि रही है। यहां की जनता धर्मशील और सत्यनिष्ठ रही है। ऋषि और देवस्थलों में धर्म-उपदेश, व्याख्यान और प्रचार जरूर प्रसारित होते रहे होंगे। अतः यदि खोज की जाये तो कुछ लिखित साहित्य के मिलने की पूरी सम्भावना है। श्री चन्द्रशेखर बेबस ने इस सम्बन्ध में संकेत भी किया है और इस दिशा में उन के द्वारा ‘हिम-भारती’ त्रैमासिक पत्रिका के मार्च, 1972 अंक के पृ० 50 पर उद्धृत कुछ सामग्री हमारी सम्भावना को आशातीत बनाती है। यहां उन्होंने उन के अनुमान के अनुसार 1860-70 में लिखी एक रचना का उद्धरण प्रस्तुत किया है जिसमें राजा विधि सिंह के आक्रमणों का उल्लेख है। यह मूल कुलुई उप-भाषा में नहीं है, बल्कि कुलुई, मण्डियाली और महासुई का सम्मिश्रण है।

1920 और 1940 के समय जहां एक ओर स्वतन्त्रता सैनानियों के संघर्ष का विशिष्ट काल रहा है वहां इस क्षेत्र के साहित्यकारों का भी यह एक उत्कृष्ट समय रहा है। ‘देहात सुधार’ और ‘कांगड़ा समाचार’ आदि अनेक पत्रिकाओं ने इन दिनों इस क्षेत्र के जन-जीवन और लोक-संस्कृति के बारे में अमूल्य रचनायें प्रकाशित की हैं। इन्हीं पत्रिकाओं के लेखकों ने स्थानीय बोलियों में रचनायें लिखी हैं। इन पत्रिकाओं की प्रतियों और उस समय लिखी लघु-पुस्तकों के संग्रह का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है जिस की ओर अभी हमारा ध्यान नहीं गया है। लेखक के ध्यान में आई ऐसी दो पुस्तिकाओं का आगे उल्लेख किया जाएगा। 

पद्य-साहित्य

जब हम कुलुई में पद्य-साहित्य का उल्लेख करते हैं तो स्वतः ही सर्व-प्रथम श्री लाल चन्द प्रार्थी का नाम आता है। वे साहित्यकार पहले हैं और राजनीतिज्ञ बाद में। उर्दू-शायरी में उनका नाम प्रदेश से बाहर अखिल भारतीय स्तर का है। उन की उर्दू ग़ज़लों ने पिछले कुछ वर्षों से बहुत स्थान प्राप्त किया है, और प्रार्थी जी की मातृ-बोली कुलुई है। अतः कुलुई के लेखक और पाठक उन की ओर विशेष उत्सुकता से निहारते हैं। उन की ‘कुलूत देश की कहानी’ इस प्रदेश की प्राचीन संस्कृति से सम्बन्धित एक श्रेष्ठ रचना है, जो आगामी शोध-कर्ताओं का पथप्रदर्शन करेगी। परन्तु प्रार्थी जी अभी कुलुई में कुछ नहीं लिख पाये हैं। कुलुई में उन की केवल दो कविताएं देखने में आई हैं। उन की पहली कविता बिना शीर्ष के ‘हिम-भारती’ जून, 1979 अंक में प्रकाशित हुई है। यही कविता बाद में भाषा-विभाग, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित पहाड़ी-कविताओं के संग्रह ‘काव्यधारा’ (भाग दो) में छपी है। यह कविता उन के समाज उत्थान की भावना से ओत-प्रोत है। वे सावधान करते हैं:―

हिम्मत केरिया आपणे देशा री, बिगड़ी दशा सुधारनी आसा
हौंखड़ू मिटिया, टुम्बले पौड़िया, बेशिया गपा नी मारनी आसा।

प्रार्थी जी की दूसरी कविता हिम-भारती के सितम्बर, 1970 अंक, और दोबारा काव्य-धारा (भाग एक) में प्रकाशित हुई है। यह कुलुई में एक सुन्दर ग़ज़ल है। इस पर प्रार्थी जी की उर्दू ग़ज़लों की छाप स्पष्टत: लक्षित होती है। इस में जहां वे एक ओर जीवन की क्षणभंगुरता की ओर संकेत करते हैं:―

फुके री जिन्दड़ी काया नमाणी
मौरना, जीणा सा केथ पराणी।

वहीं दूसरी ओर वे प्रेम की शाश्वत-सत्ता की ओर झुकते हैं:―

झूरी रा जैलभ औगी री लूपि
झूरी रा भेटिणा अम्बर पाणी।

सारी कविता में जीवन की नश्वरता और प्रेम की सनातनता का ताना-बाना है। प्रार्थी जी की यह कविता सभी दृष्टि से एक उत्कृष्ट नमूना है और नवोदित कवियों को इस से प्रेरणा लेनी चाहिये।

वर्तमान विधा से पूर्व भी कुलुई में रचना हुई है इस बात का दावा हमारे हाथ लगी दो पुस्तिकाओं के आधार पर किया जाता है। इन में से एक कंवर टेड़ी सिंह द्वारा लिखित ‘देहात-सुधार संगीत’ है तथा दूसरी श्री सर्वजीत गौड़ की पुस्तिका है जिस का नाम वाला आवरण उतर चुका है। वर्तमान विषय के लिये यह दूसरी पुस्तिका अधिक लाभदायक नहीं है। हां, इस में कुलूई बोली के नमूने दिए हैं जो भाषाई दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, साहित्यिक दृष्टि से नहीं। इसका प्रकाशन सन् नवम्बर, 1934 है। कंवर टेढ़ी सिंह की पुस्तक पर प्रकाशन तिथि दर्ज नहीं है। उन की मृत्यु 1940 से पहले हुई है (ठीक तिथि निश्चित नहीं हो सकी है), अतः यह पुस्तक इस शताब्दी के चौथे दशक में प्रकाशित हुई होगी। पुस्तिका की भूमिका में कंवर टेढ़ी सिंह लिखते हैं “इस छोटी सी किताब में देहात सुधार के मुताल्लिक कुल्लू के ज़बान में चंद ख़ूबसूरत गीत दिए गये हैं। मुअल्लिफ उम्मीद रखता है कि ये इलाका के लोगों में हरदिल अज़ीज़ होंगे।” लेखक अपनी उम्मीद में बिल्कुल खरे उतरे हैं। ‘देशा-देशान शोभला देश कुलू प्यारा, आगे सी एई रे तितरू चाकरू ए बागीचड़ू म्हारा’ जो आज लोक-गीत के नाम से प्रसिद्घ है वास्तव में लोक-गीत नहीं है। यह कंवर साहित्य का ‘हमारा देश’ शीर्षक के अधीन इसी पुस्तक का खूबसूरत गीत है। इस में विभिन्न शीर्षकों के अधीन 35 गीत हैं, और हर एक गीत का अनुवाद भी दिया है। इस के गीत सच-मुच लोक-धुनों पर आधारित मधुर गीत हैं। ‘मां-बाबे री सेवा’ का एक पद देखें:―

सेवा करनी आमा बापू री, भली सेभी न पूज़ा।
एकनी मिलदी मां संसारा-न, बापू नी मिलदा दूजा।।

इसी तरह ‘नशा’ कविता का बन्द देखे बनता है:―

छौड़ी देआ तुसा सूरा शराबा, छौड़ा चाकटी पीणी।
छौरा रै बौणा सी घौर्ठ, संघे बौणा सी रिणी।।

इस प्रकार ‘महनत’, ‘तालीम’, ‘चार-चीजा’, ‘बुरी संगत’, सफाई’, ‘फिज़ूल-खर्च’ आदि शीर्षकों के अधीन यह कुलूई में कविताओं की सुन्दर पुस्तक है। भाषा साफ सुथरी और विषय समय के अनुकूल है। लगता है इस पुस्तक में कुछ गीत श्री नेस राम आनन्द के रचित हैं। यद्यपि पुस्तक की भूमिका आदि में इस बात का उल्लेख नहीं है परन्तु श्री नेसू राम ने अपनी कविताओं के अन्त में अपना नाम अवश्य दिया है, जैसे:―

केंडे लागे ज़ोमदे औज़के सोमा न रंगा-रंगा रे बेटे।
अकल शूणी नेसू रामा री, नी लोड़ी बाबा-न पुत्र ज़ेठे।।

इसी तरह:― 

अर्ज़ सा परमेशरा आगे, नेसू रामा-री हौथड़ू ज़ोड़ी।
विधि माता रा कुलू धौरा-न, ज़लम पौहरा लो।।

इसी तरह की एक और पुस्तक स्कूल के दिनों में पढ़ी थी। याद इस लिये है कि इस में निम्नलिखित कविता थी जो अब लोक-गीत के नाम से प्रसिध्द है, परन्तु वास्तव में लोक-गीत नहीं, उस पुस्तक की अनेक कविताओं में से एक है:―

सेभीए चौकणा देशा रा भार
मिलिया जुलिया हौआ तैयार
हेसरू बोला हे सार।
देऊआ चौकदे उमर न्हौठी
ज़ीणा सा बीथा ढ़बुए घौटी
तेबे बी कौदकी हुए बमार
गूरे सा खोंज़ी दोशो री झाड़
बुधी सी ए बोकर मार
हेसरू बोला हे सार।
राम नी हुआ ता टाणगिरी शाध,
तेईए बोलू भेइरू जादू
एकी री जगह लगाणे चार
हेसरू यारा हे सार।
सेभीए मिलिया जुलिया रौहा
मिलिया जुलिया कोम कमोणा
पौढ़ा लिखा हुनर सिखा
ऊईएं सा दुख दलिद्र नौआ
और्ज़ मेरी बारबार
हेसरू यारा हे सार।

आशा है कि किसी पाठक के पास उस पुस्तक की प्रति होगी या वे उस कवि को जानते होंगे और इस की सूचना व्यक्त करेंगे ताकि ऐसे प्रतिभाशाली कवि का नाम मालूम हो। यह कविता लोक-गीत के नाम से अनेक पुस्तकों में छपी है। यह ठीक है कि ‘हेसरू यारा’ एक प्रसिद्ध लोक-गीत है जो भारी शहतीर रगड़ते हुए श्रम गीत के रूप में गाया जाता है। परन्तु उस गीत के न ऐसे शब्द हैं और न ही उस की ऐसी शैली है।

साहित्य-जागरूकता के वर्तमान गतिशील समय में कुलूई के साहित्य में, पहाड़ों की अन्य सभी बोलियों की तरह, सर्वाधिक श्रीवृद्धि काव्य क्षेत्र में हुई है। इस दिशा में श्री चंद्रशेखर बेबस का सर्वोच्च स्थान है। इन की दो कवितायें ‘काव्य धारा’ (भाग एक) में, दो ‘काव्य धारा’ (भाग दो), दो ‘काव्य धारा’ (भाग तीन) एक ‘हिमभारती’ (सितम्बर, 1970 अंक) तथा दो कवितायें ‘माला रे मणके’ पुस्तक में प्रकाशित हुई हैं। ‘माला रे मणके’ में प्रकाशित इन की कविता ‘सुख-दुख’ मानव-जीवन की सही झांकी है, और हिम-भारती में छपी ‘पोंज़ टप्पे’ शीर्षक कविता उन के अपने जीवन का ठीक आदर्श है। ‘सुख-दुख’ के अनुसार मानव का जीवन एक रियाटा (छोटा खेत जिस में धान की पनीरी बोई जाती है) के समान है। उस रियाटे में जो कुछ बोया जाता है वही फल मनुष्य प्राप्त करता है:― 

सुख ता दुख सी भागा री खेला
पौज़णा सोए जो बाहू रियाटा।।

जीवन में खोना और पाना मनुष्य के अपने हाथ में नहीं है। रियाटे में बोया बीज भी आज का बोया बीज नहीं है, पूर्व जन्म का बोया हुआ आज इस जन्म में फलीभूत होता है। इस जन्म में मनुष्य इतना ‘बेबस’ है कि जैसे वह सुख को आवाज़ दे कर बुला नहीं सकता वैसे दुख को भी धक्के दे कर निकाल नहीं सकता। इतना अवश्य है कि ‘अच्छा’ हो या ‘बुरा’ ये स्थायी नहीं, दिन निकल ही जायेंगे:―

शादिए एंदा नी दुख ता कालेया, धाकिया जांदे नी दुखे रे दिहाड़े।
खड़े नी रौहंदें एकीए सोउंचे निकली जाआ सी खरे ता माड़े।।

परन्तु लगता है बेबस जी के जीवन में अच्छा कभी आया ही नहीं । यहां ‘अच्छा’ से अभिप्राय उन का धन-दौलत या सुख-ऐश्वर्य से नही है इस में उन्हें कोई कमी नहीं रही है। विधाता ने जीवन में जो चोट पहुंचाई है उसके सामने बाद का सारा सुख नीरस और फीका है:―

दाह माण्हू रे बांडा-न पोई, दाहा बाझी नी पूरी।
बिणी हो सो पींडे रे दुखे री, चाहे मने री झूरी।।
फींफरी पांखड़ी फुकुई लूपी-न, कोम नी औथी सखाला।
ज़ेबड़ी डुघी दाह सा जौसा-बै, तेबड़ी उथड़ी छाळा।।

पीड़ा चाहे पींडे (शरीर) की हो या मन की, यह जितनी डुघी (गहरी) हो उतनी ही उथड़ी (ऊंची) छाळा (छलांगे) दर्द के कारण मनुष्य मारता है। मूल रूप से रूप से शेखर जी वियोगी कवि हैं। उन की कविताओं में वियोग की प्रधानता रही है और जहां भी उन्होंने इस विषय को अपनाया है उसे बड़ी कुशलता से निभाया है। निभाने की बात नहीं यह उनके व्यक्तित्व में स्वाभाविक है। वियोग के कारण उन की हौखी (आँखों) से आंसुओं का हौड़ (बाढ़) बहता है, बागर (वायु) वियोग के गीत गाती है, दाहीए (दर्द से) बेबस गिड़गिड़ाता है, परन्तु जिस की प्रतीक्षा है वह नहीं आता और नहीं आता।

हौखीए पाणी रे हौड़ बगाए…
बागरे गीत बजोगे रे गाए…
दाहीए ‘बेबश’ गड़गड़ाए
तुसे नी आए ता नई ऐ आए।

‘लाम्हा’ (काव्य धारा 3)

और यदि शेखर जी कभी संयोग की बात करते भी हैं तो उस से भी वियोग की टीस बनी रहती है। इस दृष्टि से काव्य धारा (भाग 2) में छपी उन की कविया ‘काली राती री काली करतूत’ अपने आप में एक मिसाल है। उथले रूप से देखा जाये तो लगता है कि यह कविता ‘बेबस’ का क्षेत्र नहीं है परन्तु गहराई से देखा जाये तो वे अपनी धारणा से टस-से-मस नहीं हुए हैं। काली रात की काली करतूत में अंधेरी रात (कालटी रात) एक विलासयुक्त सुन्दरी है, सूर्य (दिहाड़ा) उसका पति है, रात के टिमटिमाते तारे उसके प्रेमी हैं और चन्द्रमा उस का प्रमुख यार है। सारी रात अंधेरे में उन के साथ रंगरलियां मनाती है परन्तु ज्यों-ज्यों पति (सूर्य) निकट आने लगता है वह घूंघट पहनती है पर्दे से बाहर नहीं निकलती:―

कालटी रातीए तेरी कमाई।
तेरे चलितर भाळदे मांदीए, तिण नी केरूई हौख नी लाई।
खसमा सामने राणी नरोलिए, कौसी-वे नी नुहार रिहाई।
चौलू ध्याड़ा ज़ै जोतड़ू पोरे, मंतरे-मंतरे प्रगट आई।।

मौलिक-काव्य रचना में जो स्थान श्री चन्द्र शेखर ‘बेबस’ का है, अनुवाद-काव्य क्षेत्र में वही स्थान श्री नेसू राम ‘आनन्द’ का है। श्री नेसू राम जी की दो पुस्तकें (हस्तलेख रूप में) हिमाचल कला-संस्कृति भाषा अकादमी ने लेखकों को प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत सहयताअनुदान के लिये अनुमोदित की थी―एक ‘आनन्द गीता सौंदर्य (?)’ और दूसरी ‘आनन्द रामायण सार’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पहली पुस्तक में गीता के कुछ अध्यायों का पद्य रूप में कुलुई में अनुवाद है और दूसरी पुस्तक में कुलुई में ही रामायण के कुछ अंशों का पद्य-अनुवाद है। दोनों पुस्तकें अभी छपी नहीं हैं, जब छप जायें तो कुलुई साहित्य के लिये ये अमूल्य निधि होंगी। अब तक उन के निम्नलिखित अनुवाद कविता रूप में छपे हैं―

  • रावण मारना होर ज्ञान लेणा ― हिम भारती, दिसम्बर 73
  • सीता जी री अग्नि परीक्षा ― हिम भारती, सितम्बर, 74
  • सीता हरण ― पहाड़ी लोक रामायण
  • गुरु नानक देव जी री वाणी ― हिम भारती, जून 1974
  • ‘जय जी’ रा कुलुई अनुवाद

वास्तव में उपर्युक्त अन्तिम रचना को छोड़ कर शेष तीन रचनायें शुद्ध अनुवाद नहीं हैं, वरन् भावानुवाद हैं जिसे कवि ने अपने शब्दों में कविता रूप में वर्णन किया है। मूल रूप से रचनायें सराहनीय हैं और इनमें स्वछन्द गति है। पंजाबी साहित्य का पहाड़ी में अनुवाद एक महत्वपूर्ण विषय है, लेकिन संभवतः पहाड़ी लेखकों का इस दिशा में ध्यान नहीं गया है। आनन्द जी द्वारा ‘जय जी’ का कुलुई में अनुवाद इस दृष्टि से अग्रणी रहेगा कि उन्होंने इस क्षेत्र में पहल कर के एक विशिष्ट कार्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। शेखर और आनन्द जी की भाषा में बड़ी भिन्नता है। जहां शेखर जी ‘ठेठ पहाड़ी के ठाठ’ में विश्वास रखते हैं वहां आनन्द जी की भाषा में उर्दू और हिंदी के शब्दों की भरमार है। संभवतः यह अनुवाद शैली की अपनी सीमा के कारण है। अनुवाद के क्षेत्र में मूल पाठ की गरिमा को सुरक्षित रखने की आकांक्षा रहती है। इसलिये स्वाभाविक शब्दावली के प्रयोग को अंकुश सा लग जाता है। इस बात की पुष्टि हिम भारती, दिसम्बर 1972 अंक में प्रकाशित श्री चन्द्र शेखर बेबस के ‘गीता का स्थित प्रज्ञ’ के अनुवाद से हो जाती है। यहां वे भी ठेठ कुलुई के शब्द प्रयोग तक सीमित न रह सके। हिन्दी के शब्दों का प्रयोग हुआ है। परन्तु सीमा के होते हुए भी श्री आनन्द की कविताओं में कई स्थान पर शब्दों की अटपटी अखरने लगती है। विशेषतः ऐसे स्थानों पर काव्य की गुरुता को धक्का लगता है जब कुलुई की अपनी शैली को ही भूल जाते हैं और ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं जो कुलुई के व्याकरण के बिल्कुल प्रतिकूल है। उदाहरण देखें―

पहले आऊ लछमण, बैठा सिरा किनारे
रावण हुआ चुप कुछ भी न उचारे

इसी तरह―

रामे रावणा री केरी बड़ाई
आखीरी हुणी बलवान बताई

इन उदाहरणों में किनारे, बड़ाई, बलवान आदि शब्दों के प्रयोग में अधिक आपत्ति नहीं हो सकती यद्यपि इनके लिये स्थानीय शब्द हैं। परंतु ‘कुछ भी न उचारे’, ‘होणी बलवान बताई’ जैसी वाक्य-रचना कुलुई के स्वादनुकूल नहीं है। श्री आनन्द ने अनुवाद-भावानुवाद के अतिरिक्त  कुछ मौलिक कविताएं भी लिखी हैं। ऐसी दो कविताएं ‘भारती बुड्ढा (?) माली’ और ‘गरीबी हटाओ’ हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘माला रे मणके’ पुस्तक में छपी है। इन में भी उर्दू-हिंदी के शब्दों की बहुतायत है। वे लिखते हैं―

सा हरदम एज़ा याद भली एई माली री
जबै लपलपां बगरलू ती, उम्मेद नी थी हरयाली री
ती गुम-सुम हुई निहारे नां एक-एक किर्ण उज्याली री।

यदि सच पूछा जाए तो इस सारे पद में केवल एज़ा सा, एई री, जबै, बागर और निहारे शब्द ही कुलुई के हैं।

श्री हरि चन्द अत्री काफी समय तक कुलुई में लिखते और कार्यक्रम करते रहे हैं। ‘अत्री ड्रामाटिक क्लब’ के वे संचालक हैं और यह क्लब अच्छे कार्यक्रम देता रहा है। परन्तु हमें श्री अत्री की केवल दो कविताएं देखने-पढ़ने को मिली हैं― ‘कुल्लू रे दुई दुहरू’ (हिम भारती, जून 1969) तथा ‘आपणा राज़’ (हिम भारती, मार्च 1976)। केवल इन दो से ही श्री अत्री की कविता प्रतिभा देखी जा सकती है। इन की भाषा साफ सुथरी, शैली सुन्दर और प्रस्तुतिकरण बढ़िया है। इन की कविताओं का सब से बड़ा गुण शब्दों का प्रवाह है। इस प्रवाह का मुख्य कारण यह है कि इन की कविताएं लोक गीतों एवं लोक धुनों पर आधारित होती हैं। इन्हें पहाड़ी की छन्दोबद्ध कविता का उदाहरण माना जा सकता है―

छेता निण्डदे मरधे बोलू, लाड़ी वे एक फियाड़ा
होछे़ शोहरू भुखूए होले, पौहर आऊ दिहाड़ा
हांऊ निण्डणू छेता री मेल, तू आण रोटी पकाई
रोटी वे च़ोकण किछ नी होला, च़टणी पिशिया पाई।

सर्व श्री हरि दास और लेसरू राम कुलुई के दो नवयुवक उभरते कवि हैं, परन्तु जहां श्री हरिदास पुरानी परम्परा पर आश्रित हैं। वहां श्री लेसरू राम नई कविता के अधिक शौकीन हैं। और यद्यपि वे परम्परागत कविताएं भी लिखते हैं परतु असल रूप उनका नई कविता में ही निखरता है। कुल्लू कालेज की पत्रिका में उन की कविताएं और लेख प्रकाशित हुए हैं। ‘दसमी’ (हिम भारती, दिसम्बर 1971), ‘उठा ड़े भाइयों’ (हिम भारती, जून 1973), ‘मेरे गीत तेरी ज़िंदगी’ (हिम भारती, मार्च 1975) तथा ‘चार रंग दुनिया रे’ (माला रे मणके) श्री लेसरू राम की कुछ प्रसिद्ध कविताएं हैं। इन की एक नई कविता का रूप देखें―

कुल्लुई

किसान

दोथी उठिया
छेता वे जाणा
सोंझके
थौकिया सोणा
राज सरकार
केंडे चौलीरी?
कुण चलाआ सा?
केंडा चलाआ सा?
मुंबे की पता।
इन्हा गार्ड पटवारी होरा पूछा।
हिंदी रूपान्तर

किसान

प्रातः उठ कर
खेत को जाता हूँ
शाम को
थक कर सोता हूँ
राज सरकार
कैसे चली है?
कौन चलाता है?
कैसे चलाता है?
मुझे क्या पता।
इन गार्ड पटवारियों को पूछो।

श्री हरिदास शब्दों और भावों के धनी हैं। ‘हरी डाली’ (काव्य धारा, भाग एक) तथा ‘भोली जवानी’ (काव्य धारा, भाग दो) इनकी दो सुन्दर कविताएं हैं, जिन्हें अत्यन्त सफल कविताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। रस परिपाक और छंद विधान की दृष्टी से दोनों कविताएं विशिष्ट स्थान रखती हैं। परन्तु इन्ही की तुलना से ‘दखी जिंदड़ी’ (काव्य धारा, भाग दो), ‘गरीब री भक्ति’ और ‘लोभी’ (काव्य धारा, भाग तीन) तथा ‘आजादी रा मूल’ (माला रे मणके) को देखा जाए तो बहुत अन्तर दिखाई देता है। इन में तुक की समानता को अधिक ध्यान में रखा है, छंद कहीं कहीं नहीं उतरते। यथा―

एबै नैई शोख लागदी मुंबे तू दे ज़ेतरा लूण
एई रैस्ता रा पता लागणा तेई बे, एसा छानी-न जैलम लेला ज़ूण।

काव्य प्रतिभा के साथ साथ श्री हरिदास का गला मधुर है, अतः शब्दों की कमी पेशी की पूर्ति वे लय द्वारा करते हैं।

उदीयमान कवियों में श्री विद्या चन्द ठाकुर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ‘म्हारे देशे रे बेटड़ी मर्द’ और ‘नी पीणी लुगड़ी, ना पीणा शराब’ इन की दो कविताएं कुल्लू कालेज की पत्रिका देव-धरा, वर्ष 1972-73 में प्रकाशित हुई हैं, जो इस अंक की सुंदरतम कविताएं हैं। हिम भारती (मार्च 1976 अंक) में इन का ‘श्री पराशर चालीसा’ प्रकाशित हुआ है। पहाड़ी भाषा में इस तरह की यह पहली रचना है। पहाड़ी में इतना सुंदर चालीसा अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। चालीसा के सभी गुण इस रचना में विद्यमान हैं। छंद भी सुंदर बने हैं।

आसा रा मालका एक तू सहारा
दूर केरी म्हारा मना रा निहारा
तौ न पौरे होणी कौसरी आशा
सेभी रे घौरा वे केरी पियाशा

कालेज के छात्र छात्राओं में पहाड़ी में लिखने की रूचि बढ़ती जा रही है। यह प्रशंसनीय है कि कुछ वर्षों के अन्दर सभी कालेजों की पत्रिकाओं में पहाड़ी अनुभाग के अन्तर्गत पहाड़ी में लेख और कविताएं छपने लगे हैं। यहां सब की समीक्षा के लिए स्थानाभाव है, फिर भी उन्हें संदर्भ रूप में दर्ज करना ज़रूरी लगता है। देव-धरा पत्रिका में निम्न कुलुई कविताएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं―श्री प्रेम चन्द ठाकुर की ‘बचत’, श्री अमर चन्द की ‘धारा पैंधली बादली’, श्री मीने राम ठाकुर की ‘बारह महीने, बारह रीति’ (यह कविता उच्च कोटि की कविताओं में से है), श्री गुरदियाल सिंह की ‘एमरजेंसी’, श्री लाल चन्द ठाकुर की ‘जमाना नौठा बदलुइया’, श्री धन देव शर्मा की ‘मत फूल दी बोदीए’। इसी तरह राजकीय कालेज शिमला की पत्रिका ‘हिमरश्मि’ में कुलुई में श्री बलदेव कुमार की दो कविताएं ‘हड़ताल’ और ‘कुदरता री देन’ प्रकाशित हुई हैं।

कुलुई कविताओं के सम्बन्ध में अन्त में मौलू राम ठाकुर की कविताओं का सन्दर्भ देना शेष है। ठाकुर की दो कविताएं ‘साई बधाई’ (काव्य धारा, भाग तीन) और ‘लोक तन्त्र री बरकता’ विशेष महत्व की नहीं हैं। ये आदेश देकर स्टेज के लिए लिखाई लगती हैं। यह तो निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि ठाकुर ने सचमुच इन्हें कहीं स्टेज पर पढ़ा है, परन्तु निस्संदेह ये उन कविताओं में से है जिन से ‘काव्य धारा’ (भाग एक, दो और तीन) कविता संग्रह भरे पड़े हैं। ये कविताएं स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, पूर्ण स्वराज्य दिवस, पहाड़ी भाषा दिवस आदि अवसरों पर विभाग द्वारा लिखाई और बाद में प्रकाशित की गई हैं। इन से कवियों की सही प्रतिभा का पता नहीं लगता। इस दृष्टि से अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘माला रे मणके’ विभाग के काव्य धारा संग्रहों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस में संग्रहित कविताएं केवल हिमाचल गुणगान तक सीमित नहीं हैं। ठाकुर की अन्य कविताओं में ‘आशा’ (माला रे मणके) और ‘ज़मींदार रा गाभरू’ (काव्य धारा, भाग एक) सामान्य ढर्रे से हट कर लिखी हुई कविताएं हैं। मूलतः दोनों कविताएं कृषक से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार ठाकुर ने पैतृक वातावरण से प्रतिबद्धता दिखाते हुए वैयक्तिक अनुभूति का प्रदर्शन किया है। ‘आशा’ में कृषिका की वर्षा के कारण मायूसी अभिव्यक्त है और ‘ज़मींदार रा गाभरू’ में कृषक के कठिन जीवन के प्रति अपनी मजबूरी दिखाई है। ठाकुर की शब्दावली की मुख्य विशेषता लोक मुहावरों का प्रयोग है।

रियाया री सेवा ज़े केरले खरे
भीरी भी एले ते म्हारे दुआरे
ज़े केरले आपणा घौरा भौरना
काठे री हांडी नांई भीरी चढ़ना

संक्षिप्त आवृति के रूप में कहा जा सकता है कि कुलुई में प्रचुर मात्रा में कविताएं लिखी गई हैं। परन्तु नई कविताओं का प्रायः अभाव है। प्रमुखतः पुरानी परम्परा में लिखी कविताओं का प्रभुत्व है। अब कुछ कवि नई कविता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। श्री लेसरू राम के अतिरिक्त एक नई कविता श्री के० सी० पराशर की हिम-भारती, दिसम्बर 1972 अंक में प्रकाशित हुई है जो सफल प्रयास है। श्री मेहर चन्द सुमन कुलुई के उभरते हुए कवि थे। हमें शोक है कि आनी बस दुर्घटना में निष्ठुर मृत्यु ने उन्हें साहित्य सेवा से वंचित किया। उन की एक पुस्तक अकादमी द्वारा प्रकाशित की गई है।

गद्य साहित्य

उपन्यास और लम्बे नाटक को छोड़ गद्य साहित्य के शेष सभी विधाओं में कुलुई में साहित्य रचना हुई है। स्थानाभाव के कारण इन सब की समीक्षा विस्तार से नहीं हो सकती। यहां केवल परिचय देने का प्रयास किया जाता है।

कहानी

कुलुई बोली का सब से अधिक निखार कहानियों और लोक कथाओं में हुआ है। इस विधा में लेखकों ने विशेष रुचि दिखाई है। कविताओं के साहित्य को दो दृष्टि से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। प्रथमतः कविता की भाषा मूलतः कवि की अपनी होती है। शब्दावली और व्याकरण को कवि अपना ही रूप देता है। यह बात पूर्व के विवरण से स्पष्ट हो चुकी है। पहाड़ी कविताओं की स्थिति में दूसरी आपत्ति यह है है कि ये अधिकतः लिखा कर की गई हैं―विभाग के कवि सम्मेलनों के लिए, अकादमी के कार्यक्रम के लिए या आकाशवाणी के प्रसारण के लिए। कवियों की मौलिक भावना इन में कम ही प्रयोग में लाई गई है। परन्तु गद्य और विशेषतः कहानियां साहित्यकारों की मौलिक रचनाएं हैं। इन में अपनी बात इसी रूप में दिखाने की क्षमता भी बहुत है। यह बॉत समीक्षाधीन सभी कहानियों से स्पष्ट है।

श्री के० सी० पराशर की तीन कहानियां छपी हैं― ‘ग्रेज़ी मठियाई’ (हिम भारती, दिसम्बर 1970), ‘चाकरी’ (हिम भारती, जून 1971), ‘बाब बेटे’ (हिम भारती, सितम्बर 1972)। तीनों कहानियां उच्च कोटि की सफल कहानियां हैं। तीनों भावना प्रधान कहानियां हैं। यद्यपि तीनों का विषय मूलतः एक ही है― माता-पिता का बच्चों से प्यार, विशेषतः उन भोले-भाले माता पिताओं का जो इन पिछड़े पहाड़ी क्षेत्र की उपज हैं और जिन की एक मात्र संपत्ति उन के बच्चे हैं। पुनः दृष्टव्य है―बच्चे सब के प्यारे होते हैं, यह विश्व्यापी सच्चाई है। परन्तु इन क्षेत्रों में जहां विज्ञान की उपलब्धियां प्राप्त नहीं, मनोरंजन के साधन नहीं, आर्थिक अर्जन ज़मीन जे सिवा कोई और उपाय नहीं। बच्चा जीवन की धुरी है। इस विषय को लेकर इस के कुशल प्रतिपादन के लिए श्री पराशर बधाई के पात्र हैं। ‘ग्रेज़ी मठियाई’ में लकड़ी बेच कर गुज़ारा करने वाली तुआरी का पुत्र बीमार है। लकड़ी के मूल्य से बच्चे को दवाई खरीदने लगती है परन्तु बच्चे का मोह देखिए दवाई से पैसे बचा कर अंग्रेज़ी मिठाई की दो गोलियां लेकर घर दौड़ती है। बाब-बेटे में छेरिंग एक स्कूल अध्यापक सोनम का बाप है। परन्तु नौकरी पर लगने के बाबजूद समझता है बेटे को और सुख दिया जाए। इसलिए मजदूरी करता है। परन्तु विधाता निष्ठुर है। इतना सुख देने पर भी सोनम दुबला पतला होता जाता है और बाप के मजदूरी से वापिस पहुंचने तक दम तोड़ बैठता है। ‘चाकरी’ में सुआरी समझती है देवते की चाकरी (पूजा) में कमी रह गई है तभी तो बड़े अस्पताल के इलाज पर भी उस के पुत्र ‘भाऊ’ को आराम नहीं आता और बीमार बच्चे को बिस्तरे पर छोड़ कर पहाड़ी की चोटी पर महादेव के मंदिर को हांफती हुई दौड़ती है। सुबह तक सुआरी के मंदिर से आने तक ‘भाऊ’ बिस्तर में दम तोड़ देता है। कितना अच्छा होता यदि श्री पराशर अपने इस क्रम को जारी रखते। उन के कहानी कहने की प्रतिभा अनूठी है। व्यक्तिगत रूप से मैं शहर में रहने वालों की कुलुई भाषा को खिचड़ी समझता हूँ। उन की बोली में बनावट के सभी दोष हैं। परंतु श्री पराशर शहर में रहते हुए इस कदर भाषा के धनी हों यह गर्व की बात है। छपाई वालों ने प्रूफ रीडिंग में ‘सत्यनाश’ किया है। कई जगह बात भी स्पष्ट नहीं होती। परन्तु यह लेखक का कसूर नहीं है। उन की भाषा मधुर और वाक्यावली चटपटी है जो कहानी के लिए बड़ी उचित है― “देऊआ रा दोष। कोई भूल चूक हुई होली… देवू रे बापू हुंदेया कदी नी हुआ ज़े चाकरी नी धीनी देऊ आगे”। आज कल की कहानियों में खाह मखाह विस्तार देने की प्रवृति होती है। श्री पराशर ज़रूरत से ज़्यादा एक शब्द नहीं लिखते। दो पृष्ठों में आप कहानी का पूरा लुत्फ लेते हैं।

पुरोहित चन्द्र शेखर बेबस की एक बार एक कहानी पढ़ी (या सुनी) थी―खिंद। बुढ़िया की ‘खिंद’ टूट जाती है। वह उसे सिलाने के लिए पुनः उधेड़ती है और जब सिलाने लगती है तो उसे हर चीथड़े के साथ याद ताज़ा हो जाती है। मनुष्य का जीवन सच मुच एक बहुत बड़ी खिंद है और ‘बेबस’ जी ऐसी खिंदों को संवारने में बड़े माहिर हैं। ऐसी उधेड़ बुन उन्होंने अपनी कहानी ‘जोगणी’ (लोसरा रे फूल) में की है। बेबस जी तब अमरीका जा रहे थे (कहानी के अनुसार) जब अपनी बुआ के घर की नौकरानी (असल में एक अनाथ बालिका) रामी से प्यार हो गया। वापिस आए तो कल्याणी से उन का विवाह हो गया। तब तक रामी मर चुकी है परन्तु रामी का प्यार देखो उस ने जोगणी बन कर कल्याणी को तंग करना शुरू कर दिया और तब तक सताती रही जबतक कि पति-पत्नी ने देऊपुरा में जाकर उसकी मूर्ति बना उसके सामने मिन्नत न की। इनकी दूसरी कहानी ‘भाहिड़’ (बरासा रे फूल) में एक भाइड़ (धर्म भाई) का अपनी धर्म बहिन के प्रति बहिन भाई के प्यार की घटना दर्शाई गई है। बशाखू पुहाल (गडरिया) ने बाहर का (नीच जाति का) होते हुए भी अपनी धर्म बहिन जानकी और उस के पति का मान बचाने के लिए अपनी जान दी। ऐसा ही भाव उन की तीसरी कहानी ‘लंभरदारे रा बेटा’ (हिम भारती, दिसम्बर 1975) में अभिव्यक्त होता है। लंभरदार का बेटा अपनी मुसलमान माशूका से लोक लाज के कारण शादी न कर सका और पंजाब के विभाजन पर अपने माहौल से संत्रस्त हो कर अपना गांव छोड़ कर कुल्लू आ गया और यहां पुरानी याद बटोरने लगा। तीनों कहानियों में मूलतः विवाह का बखेड़ा है और जात पात के कारण समाज सुधारक के रूप में सामने आई है।

लोसरा रे फूल प्रकाशित श्री मंगल चन्द ठाकुर की ‘सूने री खूंडी’ करुण रसायुक्त भावना प्रधान कहानी है। शिधरी एक एक पैसा बटोर कर सोने की खुंडियां (छोटी बालियां) खरीदने का भरपूर प्रयास करती है और जब पूर्ण आशा लिए खुंडियां खरीदने वाली होती है तो उस की बहिन की बेबसी और लाचारी पैसे छीन लेती है। ‘उस के मन में खुंडियों के मोह और बहिन के प्यार का संघर्ष होता है। जिस में बहिन का प्यार अग्रसर हो कर खुंडियों के मोह को पराजित करता है।’ इसी पुस्तक में प्रकाशित मौलू राम ठाकुर की कहानी ‘जागले’ असल में आलूओं की फसल को नष्ट करने वाले कीड़े नहीं बल्कि समाज के वे छिछले प्रेमी हैं जो दूसरे की लाज हरने के लिए हर दम तैयार रहते हैं। श्री लेसरू राम की कहानी ‘निहारी कुण्ही’ (हिम भारती, मार्च 1972) ग्रामीण जनता के लिए उपदेशक कहानी है जिस में गांव के परम्परागत इलाज और विज्ञान के इलाज में अंतर दर्शाया गया है। यह सामान्य कहानी है। देवधरा (वर्ष?) में दो कहानियां प्रकशित हुई हैं। ‘प्यार’ ले० त्रिलोचना महन्त और ‘गरीबा रा रोणा सूखा रा, अमीरा रा रोणा दुखा रा’ ले० लाल चन्द ठाकुर। दोनों साधारण कालेज स्तर की कहानियां हैं।

मौलिक कहानियों की अपेक्षा कुलुई में लोक कथाएं अधिक प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हुई हैं। साहित्यिक दृष्टि से ये अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। परंतु भाषाई विकास के लिए इन्हें उपेक्षित नही किया जा सकता। लोक साहित्य की दृष्टि से तो इनका सर्वाधिक महत्व है। कुछ विशिष्ट लोक कथाएं इस प्रकार हैं― ‘बिजली महादेऊ री कथा’–सुश्री उर्मिला शर्मा (हिम भारती, दिसम्बर 1971), ‘तूली गूडरी री कैथा’–श्री नानक चन्द शर्मा (हिम भारती, सितम्बर 1973), ‘भेखली देवी री कथा’–कु० विद्या शर्मा (हिम भारती, दिसम्बर 1974), ‘दुई ठग’ श्री नरेन्द्र शर्मा (हि० भा०, दिसम्बर 1975), ‘टिम्बर शौचका’–कु० विद्या शर्मा (हि० भा०, मार्च 1976), ‘फुलणू न्हौठा दूर’–श्री बाल कृष्ण (हिम रश्मि, 1974-75), ‘दोहरी हूशा’–ले० श्री बलदेव कुमार (हिमरश्मि, 1973-74), ‘किरडू नागा रंग तमाशा हेरिदा लागा’ श्री घमंडू राम वर्मा (देवधरा), ‘परांजणू गूर’ (देवधरा) ले० लाल चन्द ठाकुर। सभी लोक कथाएं यहां के जनजीवन तथा लोक मान्यताओं पर प्रकाश डालती हैं। परन्तु कठिनाई यह है कि ‘तूली गूडरी री कैथा’ को छोड़कर कहीं भी इन्हें विस्तार नहीं दिया गया है। लोक कथाओं के प्रस्तुतिकरण की शैली से लेखक परिचित नहीं हैं। वास्तव में कथा न कह करके बात कही गई है। हां संग्रह की दृष्टि से इन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। भविष्य के अध्ययन के लिए ये आधार बनेंगी।

नाटक

यदि चन्द्र शेखर “बेबस” जी के सही साहित्यिक व्यक्तित्व को देखना अपेक्षित हो तो उन्हें नाटकों में ढूंढना चाहिए। कविताओं और कहानियों की अपेक्षा नाटकों में वे अधिक सुरक्षित हैं। उन्होंने ‘मोड़’ नाम से हिम भारती, जून 1970 में 24 पृष्ठों का नाटक प्रकाशित किया है जो आज तक छपे नाटकों में सब से बड़ा है। वह कांगड़ी में है। अतः यहां उस का उल्लेख नहीं किया जाएगा। उसी के मुकाबले का उन का दूसरा नाटक ‘घोर’ (हिम भारती, जून 1969) कुलुई में छपा है। इसके चार दृश्य हैं। विषय ‘परिवार नियोजन’ है। अतः नाटकों की प्रचारात्मक श्रेणी में आता है। परिवार नियोजन के पक्ष में इतनी अच्छी वकालत की गई है कि अंत में उन की विजय में कोई संदेह नहीं रहता। अपने ज्ञान को ऐसा व्यवहारिक मोड़ दिया है कि विषय साधारण होते हुए भी नाटक खूब मनोरंजक बन पड़ा है। ‘कबौत’ (सोला सिंगी) में तीन दृश्य हैं यद्यपि पुस्तक संपादक इसे एकांकी कहता है जो उचित नहीं। इस में घटना काल की समानता नहीं है। मुकदमा बाज़ी का विषय है। कचहरी का रास्ता निस्संदेह कबौत (गलत रास्ता) है। शेखर जी के नाटकों की शैली परम्परा और नवीनता का सम्मिश्रण है। वाक्य बड़े चुस्त और गतिशील हैं। जहां भी लयबद्ध शैली की अपनाया गया है, उस में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। पहाड़ी में लयात्मक शैली पुरानी नहीं कही जानी चाहिए जब इसमें कभी लिखा ही नहीं गया था। बेबस जी इस में बड़े चतुर हैं― ‘हांईए सो गल ता ना मैं जाणी, पर ए जूब किज़िबे आणी, हाज़ी आगली ए नी हुई पराणी, तू बी साए काणी’। कवि होने के नाते श्री बेबस अपने नाटकों को काव्यात्मक तत्वों से सजाते हैं। इससे मंचीय प्रभाव अधिक व्यापक और गतिशील होता है छोटे और चुस्त वाक्यावली से शेखर जी के साधारण वार्तालाप भी मनोरंजक होते हैं। यह बात उन की ‘आपणी गल’ (हिम भारती, जून 1972) रूपक से स्पष्ट हो जाती है।

कुलुई के लेखकों ने नाटकों एवं एकांकियों की ओर अधिक रुचि नहीं दिखाई है। मौलू राम ठाकुर का ‘शाहुरा नी घालिदा प्रेखण’ (नाटक संग्रह) में प्रकाशित हुआ है। इसे मंच पर भी दिखाया गया है। परन्तु सच पूछा जाए तो यह नाटक या एकांकी की परिधि में नहीं आता। संभवतः इस की रचना के समय लेखक के सामने ‘हरन’ नाट्य का दृश्य सामने था। हरन के स्वांग में ऐसा दृश्य रहता है। इस दृष्टि से ‘शाहुरा नी घालिन्दा’ सफल लोक नाटक कहा जा सकता है। ऐसा ही एक छोटा सा नाटक देवधारा वर्ष 1974-75 में छपा है― ‘पुराना झाड़ू और नया झाड़ू’ ले० श्री लाल चन्द ठाकुर। इस का विषय भी परिवार नियोजन है। कालेज छात्रों की अच्छी रचनाओं में इसे रखा जा सकता है।

निबंध और लेख

कुलुई में सब से अधिक साहित्य लेखों के रूप में प्रकाशित हुआ है। लेखों का विषय मूलतः कुल्लू के देवता और जन जीवन रहा है। ‘धौरती पांधला सौर्ग―कुल्लू’ (पहाड़ी लेख माला) लेख में श्री एन० सी० शर्मा ने कुल्लू को धरती पर का स्वर्ग बताते हुए उस की भौगोलिक सुन्दरता, जलवायु, अन्न, वस्त्र, रीति-रिवाज, ऋतु मौसम, प्रसिद्ध स्थानों, जड़ी बूटियों का सारांश उल्लेख किया है। इसी क्रम में अलग-अलग विषयों पर और विस्तृत लेख प्रस्तुत हुए हैं। मलाणा गांव कुल्लू में एक बिल्कुल अनोखा जनपद है। जहां का रहन सहन, रीति रिवाज और बोली शेष सभी गांवों से भिन्न है। स्वाभाविक है कि विभिन्न लेखकों को इस सम्बन्ध में लिखने की इच्छा हुई है, यथा―देवधरा (वर्ष 1972-73, 1973-74 और 1974-75) में श्री भुवनेश्वरी दत्त शर्मा का लेख ‘देऊ जमलू रा घौर मलाणा’, श्री सुख राम ठाकुर का ‘मलाणी ता तिन्हारी बोली―कणाशी’, हिम भारती, मार्च 1975 में श्री नेसू राम का ‘मलाणा’ तथा दिसबंर 1976 के अंक में श्री सुभाष चन्द्र शर्मा का ‘पुराने लोक तन्त्रा रा आदर्श―मलाणा’। परन्तु इतने लेख होते हुए भी मलाणा के बारे में जानने की इच्छा पूरी नहीं होती, हर बात अनोखी होने के कारण और जानने की आकांक्षा बनी रहती है। इसी क्रम में श्री मंगल चन्द अपने लेख ‘भादरू री बीह’ (पहाड़ी लेख माला) में भादो के बीस प्रविष्टे को मनाये जानें वाले महत्व पर्व के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। श्री चन्द्र शेखर बेबस ‘विवाह शादी’ (पहाड़ी लेख माला) में आठ प्रकार के विवाहों का विस्तार से उल्लेख करते हैं। ‘कुल्लू रे गीता न प्रकृति चित्रण’ (हिम भारती, सितम्बर 1974) लेख में श्री बाल कृष्ण ठाकुर कुल्लू के लोक गीतों के एक पक्ष पर प्रकाश डालते हैं। इस तरह के अनेकों लेखों की अपेक्षा की जाती है क्योंकि कुल्लू लोकगीतों और लोक नाच के लिए सुप्रसिद्ध है। श्री तेज राम ठाकुर ने अपने लेख ‘लौगा रा नाल’ (देवधरा, 1972-73) में कुल्लू की एक वादी का संक्षिप्त परिचय दिया है।

कुल्लू  ‘देव भूमि’ के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं यहां अठारह करोड़ देवता रहते थे। ‘कुल्लू रै देऊ की सी’ (चंगेर फुल्लां री) लेख में मौलू राम ठाकुर ने यहां के देवी-देवताओं का सामान्य परिचय दिया है। इस शीर्षक के अन्तर्गत और लेख प्रकाशित हुए हैं जिन में कुछ देवताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसे हर एक लेख में विशेष देवता के बारे में विस्तार से जाना जा सकता है, यथा― ‘कुल्लू रा एक वार्षिक मेला’ में श्री विद्या चन्द ठाकुर ने महाराजा कोठी और कटौला (मण्डी) के देवता ‘महर्षि पराशर’ की पूजा और उसके मेलों का वर्णन किया है। इसी देवता पर एक दूसरा लेख देवधरा (1974-75) में श्री भक्त राम ठाकुर ने लिखा है। श्री नरेन्द्र शर्मा ‘नगर गनेड़’ और ‘बड़ा फेरा’ (हिम भारती, दिसम्बर 1973 और 1974) में नगर के देवता से सम्बन्धित दो मेलों का हवाला देते हैं। देवता की अपेक्षा में मेले से अधिक सम्बन्ध रखते हैं। देवताओं से सम्बन्धित अन्य लेख देवधरा पत्रिका में छपे हैं, जैसे― ‘खोखण रा ब्रह्मा’ ले० श्री सेस राम ठाकुर, ‘नाग केंडे पैदा हुए’ ले० श्री कौले राम ठाकुर, ‘नागे री फागली’ ले० श्री एन० सी० शर्मा, ‘देऊ नाग दा(?) जौरी जाच’ ले० श्री घनश्याम चन्द नेगी।

मूल रूप में जिन्हें निबंध कहा जाता है ऐसी रचनाएं कम ही देखने में आती हैं। फिर भी निम्नलिखित रचनाओं को निबन्ध की श्रेणी में रखा जा सकता है:― श्री अमरनाथ उपाध्याय का ‘जीवने रा लक्ष’ (पहाड़ी लेख माला), श्री सुशील शर्मा का ‘एक सभी न बड़ी समस्या’ (हि० भा०, सितम्बर 1971), कु० विद्या शर्मा का यात्रा संस्मरण ‘शिमला न खठमंडू तांई’ (हिम भारती, मार्च 1974), श्री मौलू राम ठाकुर जी की ‘सुथण’ (पहाड़ी लेख माला), श्री अमर नाथ उपाध्याय की ‘गुसाईं तुलसी दास जी’ (हिम भारती, जून 1973), श्री चन्द्र शेखर बेबस का ‘तुलसी रामायण का राम’ (हिम भारती, मार्च 1974)।

अनुवाद

कुलुई में हुए अनुवाद के सम्बन्ध में कुछ चर्चा ‘पद्य-साहित्य’ के अधीन हुई है। उसी क्रम में यह उल्लेखनीय है कि श्री चन्द्र शेखर बेबस ने गोस्वामी तुलसी दास जी के ‘रामचरित मानस’ के अयोध्या कांड का कुलुई में पद्य में अनुवाद किया है जो हिम भारती, जून 1974 अंक में प्रकशित हुआ है। श्री राम चन्द्र मेहरा ने पूरी रामायण का कुलुई में गद्य रूप में अनुवाद किया है। मुझे उस अनुवाद को पढ़ने का अवसर मिला है। शिक्षा(?) विभाग के अन्तर्गत राज्य भाषा संस्थान ने ‘लेखकों को प्रोत्साहन’ योजना के अधीन उस अनुवाद को प्रकाशन के लिए स्वीकृत किया है। परन्तु अभी तक उस का प्रकाशित रूप देखने में नहीं आया है। अनुवाद का महत्व प्रकाशन पर ही आंका जा सकता है। कितना अच्छा होता यदि वह छप जाता। 

‘द बायबल सोसायटी आफ इण्डिया, बंगलौर’ ने गॉस्पल (ईसा का जीवन चरित) कुलुई में ‘शोभली गला’ नाम से अनुदित करवाया है। यह 1969 में प्रकाशित हुआ है। अनुवादक का नाम नहीं दिया गया है। सम्भवतः यह कुलुई में सब से बड़ा अनुवाद है। अनुवाद की भाषा से स्पष्ट होता है कि कुलुई में विदेशी साहित्य को प्रकट करने की पर्याप्त क्षमता है।

(आयुर्विज्ञान कालेज, शिमला)


संदर्भ सूची

1. काव्य धारा (भाग 1, 2 और 3) – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

2. देवधरा (वर्ष 1972-73, 1973-74, 1974-75) राजकीय कालेज, कुल्लू

3. चंगर फुल्लां री – राज्य भाषा संस्थान, शिक्षा विभाग (अब भाषा एवं संस्कृति विभाग), शिमला-9

4. पहाड़ी लेख माला – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

5. बरांसा रे फूल – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

6. प्रेखण – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

7. माला रे मणके – हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी, शिमला-9

8. लोसरा रे फूल – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

9. सोला सिंगी – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

10. कथा सरवरी – हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी, शिमला-9

11. हिम भारती – भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला-9

12. हिम रश्मि – राजकीय कालेज, शिमला


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